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‘Who Lost China’ के बाद अब फिर डरा हुआ है अमेरिका, क्या भारत जैसे साथी को खोना ज्यादा बड़ा झटका होगा? – america fears losing india after china tariff war donald trump ntcpmj


अमेरिका और भारत का रिश्ता कमजोर दौर से गुजर रहा है. पहलगाम हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. तभी डोनाल्ड ट्रंप की एंट्री हुई, जो शांति के नाम पर उलजलूल बयान देने लगे. इसके बाद से ही दूरियां आने लगीं. बची-खुची कसर ट्रंप के टैरिफ वॉर ने पूरी कर दी. अब दोनों देश वाकई दूर दिख रहे हैं. यहां तक कि लंबा तनाव भुलाकर बीजिंग और दिल्ली साथ दिखने लगे. लगभग आठ दशक पहले चीन भी इसी तरह वॉशिंगटन के हाथ से निकल गया था. 

क्या हुआ था अमेरिका और चीन के बीच

1950 के दशक की शुरुआत में अमेरिका और चीन के रिश्ते पूरी तरह बिगड़ गए. इसकी जड़ें साल 1949 की चीनी क्रांति में थीं, जब माओत्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता संभाली. वॉशिंगटन को उम्मीद थी कि चीन एशिया में उसका साथी बनेगा और बाकियों पर नजर रखने में मदद करेगा. लेकिन बीजिंग का झुकाव सोवियत संघ की तरफ हो गया, जो उसका सबसे बड़ा दुश्मन था. इसी को अमेरिका में कहा गया, ‘हू लॉस्ट चाइना’ यानी चीन आखिर हाथ से कैसे निकल गया.

इसके कुछ ही महीनों बाद कोरियाई युद्ध छिड़ा. अमेरिका दक्षिण कोरिया के साथ खड़ा था जबकि चीन ने उत्तर कोरिया में अपनी सेना भेजकर सीधा अमेरिकी सैनिकों से मोर्चा ले लिया. इस लड़ाई ने दोनों के बीच पड़ी गांठ को और पक्का कर दिया.

वॉशिंगटन में माहौल ऐसा था कि बीजिंग को लेकर जूतमपैजार करने लगे कि किसकी गलती से चीन बहका. तब से आज तक चीन का कम्युनिस्ट बनना अमेरिका की एशिया पॉलिसी की सबसे बड़ी हार माना जाता रहा है. 

वापस पाने की कोशिश भी की लेकिन डराते हुए

अमेरिका ने दाम-दंड-भेद सारे तरीके आजमाए कि चीन उससे मिल जाए. बहुत से प्रतिबंध लगाए गए. इंटरनेशनल मंचों पर उसके खिलाफ लामबंदी हुई. यहां तक कि ताइवान समेत अमेरिका हर उस जगह के सपोर्ट में आ गया, जो चीन से बिदके हुए थे. वैचारिक दूरी से शुरू हुई ये खाई राजनीति तक आ पहुंची.

donald trump on reciprocal tariff (Photo- Reuters)
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत समेत लगभग सारे देशों पर भारी टैरिफ लगा दिया. (Photo- Reuters)

अब चीन-अमेरिका में तनाव उतना साफ नहीं दिख रहा क्योंकि चीन भी बड़ी ताकत बन चुका. साथ ही जियो-पॉलिटिक्स में कई और समीकरण बन चुके हैं, जिससे अमेरिका भी तमाम शक्ति के बावजूद अपनी चालें नहीं चल पा रहा. इसके बाद भी दोनों में पचास के दशक से आई दूरी बनी हुई है बल्कि भीतरखाने बढ़ी ही. 

भारत-अमेरिका संबंध भी क्या उसी दौर से गुजर रहा

हाल में SCO समिट में भारतीय नेता चीनी लीडर्स के साथ दिखे. मामूली भंगिमा से अलग इसमें कुछ खास था. चीन और भारत के रिश्ते भी तनावपूर्ण थे. लगभग सात सालों बाद दोनों देशों के नेता मिले. दोनों ही एक तरह से अमेरिका से त्रस्त. अनचाहे ही यूएस वो कड़ी बन गया, जो भारत-चीन को साथ ले आया. रूस पहले से ही दोनों का दोस्त है. अब चर्चा हो रही है कि तीनों मिलकर अमेरिका की जरूरत को खत्म कर सकते हैं. अमेरिकी तकनीक, अमेरिकी बाजार और अमेरिकी विदेश नीति- अगर ये तीनों ही कमजोर पड़ जाएं तो अमेरिका एक देश बतौर कमजोर हो जाएगा. 

ट्रंप फिलहाल जता रहे हैं कि उन्हें भारत से दूरी की खास परवाह नहीं. लेकिन राजनीतिक गलियारे में भारत जैसे पार्टनर को खोने का डर दिखने लगा है. चेतावनी दी जा रही है कि मौजूदा व्यापारिक तनाव लंबे समय तक भारत-अमेरिका संबंध को नुकसान पहुंचा सकता है. रिपब्लिकन नेता निकी हेली ने कह दिया कि यूएस को भारत जैसे मजबूत साथी के साथ रिश्ते खराब नहीं करने चाहिए. इसे रणनीतिक आपदा तक कहा जा रहा है.

PM Naredra Modi with Xi Jinping and Valdimir Putin (Photo- Reuters)
SCO समिट में इस तस्वीर के आने के बाद बहुध्रुवीय दुनिया की बात होने लगी. (Photo- Reuters)

कितना टिक पाएगा भारत के बगैर अमेरिका

भारत के लिए भी अमेरिका से दूरी कम मुश्किल नहीं, लेकिन अमेरिका ज्यादा नुकसान में रहेगा. असल में उसके लिए भारत सिर्फ़ एक बाजार नहीं, बल्कि चीन को बैलेंस करने का सबसे बड़ा रणनीतिक पार्टनर है. उसकी पूरी एशिया स्ट्रैटेजी इसी पर टिकी हुई है. जापान और ऑस्ट्रेलिया अमेरिका के करीबी हैं, लेकिन उनकी आबादी और बाजार सीमित हैं. भारत अकेला देश है जो हर तरह से चीन को टक्कर दे सकता है. तो उसे खोने का मतलब होगा कि अमेरिका इंडो-पैसिफिक में अकेला पड़ जाएगा, और एशिया में उसका असर लगभग खत्म होने लगेगा. फिलहाल जो नए पार्टनर हैं, वे खुद कमजोर और उसपर टिके हुए हैं. 

भारत की क्या है तैयारी

दिल्ली को अमेरिका की जरूरत है, पर विकल्प भी तैयार हो सकते हैं. तकनीक के लिए हमारे पास रूस जैसा साथी है. यूरोप के भी कई देश तनाव की कीमत पर भी भारत से जुड़े रह सकते हैं, जैसे जर्मनी. बाजार के लिए चीन और भारत आपस में बात कर सकते हैं. यानी भारत की नीति मल्टीपोलर है. अगर कल को अमेरिका ज्यादा ही उखड़ जाए तो भी उसके पास यूरोप, रूस, जापान और खाड़ी देशों का साथ होगा. 

कुल मिलाकर, अमेरिका के लिए भारत अनिवार्य है, जबकि भारत के लिए अमेरिका सुविधाजनक है. यही वजह है कि लगभग आठ दशक बाद वहां फिर से हू लॉस्ट इंडिया जैसा डर छाने लगा है. ये झटका वैसा ही होगा, जैसे सालों पहले चीन के खोने पर लगा था. या शायद उससे भी बड़ा और मारक. 

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