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संघ के 100 साल: आसान नहीं थी संघ गणवेश की मूल कमीज, टोपी, बेल्ट और जूतों की विदाई – sangh 100 years uniform design story half pant rss history ntcppl


चीन युद्ध के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की ट्रैफिक प्रबंधन से लेकर रक्तदान और सहायता सामग्री पहुंचाने तक की तत्परता देखकर पंडित जवाहर लाल नेहरू इतने प्रभावित हुए कि उन्हें 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में आमंत्रित कर दिया. के आर मलकानी अपनी किताब ‘द आरएसएस स्टोरी’ में लिखते हैं कि नेहरू ने उस वक्त कहा था कि, “Given the spirit, even the Lathi could successfully face the bomb.” संघ के 2000 स्वयंसेवकों ने पूरे गणवेश (संघ की यूनीफॉर्म) में उस परेड में भाग लिया था. बिगुल बैंड के साथ संघ स्वयंसेवकों का ये मार्च उस दिन चर्चा का विषय बन गया. लेकिन अगले दिन कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में ये मार्च कुछ अलग वजह से चर्चा में था और वो वजह थी गणवेश.

कई सांसदों को तो इसी बात पर ऐतराज था कि संघ को क्यों बुलाया गया? नेहरू ने सभी को ये जवाब देते हुए शांत कर दिया कि उस परेड में सभी नागरिकों को आमंत्रित किया गया था, सो संघ ने भी हिस्सा लिया. एक सांसद ने फिर एक दिलचस्प सवाल उठाया कि कितना अच्छा होता कि कांग्रेस सेवा दल भी इस परेड में हिस्सा लेता. तो दिल्ली से एक वरिष्ठ सांसद ने जवाब दिया कि हम भाग ले सकते थे, लेकिन समस्या यूनीफॉर्म को लेकर आ गई थी. पहले वाले सांसद ने पूछा, कैसी समस्या? दिल्ली के सांसद ने कहा, “हमारे पास केवल 250 यूनीफॉर्म्स थीं, हमें अंदाजा था कि अगर हम परेड के लिए उतरते तो उनके मुकाबले बेहद कम होते, सो हमने परेड में ना जाने का फैसला किया. इस बात पर पहले वाले सांसद ने सबको ये कहकर हैरान कर दिया कि, “संघ के स्वयंसेवक अपनी यूनीफॉर्म खुद लाते हैं, संघ उन्हें यूनीफॉर्म नहीं देता”.

संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील अपनी पुस्तक “The RSS: Roadmaps for the 21st Century The RSS: Roadmaps for the 21st Century” में लिखते हैं कि जब संघ की स्थापना के बाद 9 मई 1926 को पहली बैठक डॉक्टरजी के आवास पर हुई तो उसमें 14 दिन में एक बार मिलना, व्यायामशाला स्थापित करना, शिव जयंती उत्सव मनाना जैसे विषयों के साथ-साथ संघ के गणवेश पर भी चर्चा हो गई थी.

आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि संघ का जो पहला गणवेश तय हुआ था, उसे सबसे पहली बार संघ के जन्म से भी 5 साल पहले कांग्रेस के अधिवेशन में पहना गया था. सुनील अम्बेकर थोड़ा और विस्तार से बताते हैं कि इस गणवेश का निर्धारण डॉक्टरजी द्वारा किया गया था. इसे पहली बार 1920 में नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान उनके द्वारा प्रारम्भ किए गए ‘भारत सेवक समाज’ के स्वयंसेवकों ने पहना था. के आर मलकानी अपनी पुस्तक ‘द आरएसएस स्टोरी’  में बताते हैं कि पहले गणवेश में खाकी शर्ट होती और घुटनों तक आने वाला खाकी निक्कर.

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शुरुआत में इस गणवेश को बनाए रखने की एक और वजह थी. 1920 में आर्मी से रिटायर हुए मार्तंड राव जोग संघ से जुड़े तो उन्हें युवकों के प्रशिक्षण का काम दिया गया था और वो आर्मी के तरीके से ही ड्रिल आदि करवाते थे. इसी के चलते इसमें लाठी भी जुड़ गई थी. ऐसे में गणवेश में तब्दीली की फौरन जरूरत महसूस नहीं हुई. हां, पांच साल बाद खाकी टोपी को काली टोपी से बदल दिया गया था. इस बदलाव के पीछे कोई वजह आज तक स्पष्ट नहीं है. संघ का भला सोचने वाले इसके पीछे की वजह खुद को सैन्य संगठनों से अलग रूप देने की इच्छा बताते हैं तो विरोधी इसे मुसोलिनी की सेना की काली टोपी से जोड़ते रहे हैं. हालांकि मुसोलिनी की टोपी ठंड को ध्यान में रखकर गोल व सिर से चिपकी हुई बनाई गई थी.

संघ के गणवेश में सबसे बड़ा बदलाव 1940 में हुआ, और इसकी वजह थे अंग्रेज. जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ तो भारत में अंग्रेज भी सतर्क हो चले थे. जिन संगठनों पर उसकी नजर थी, उनमें एक संघ भी था. उन दिनों संघ की गणवेश में आज की तरह आम काला जूता नहीं था बल्कि लम्बा बूट था. ये बूट नागपुर में ही बनता था. ऐसे में अलग अलग साइजों की जरूरतों के हिसाब से अलग अलग शहरों से स्वयंसेवक वहां पत्र भेजते थे. एक दिन खबर मिली कि इन पत्रों को अंग्रेजी अधिकारी खोलकर पढ़ रहे हैं, तो एक स्वयंसेवक ने डॉ केशव बलिराम हेडगेवार को चेताया कि आप जवाब में ऐसा कुछ मत लिख दीजिएगा, जिससे उन्हें शक हो जाए तब हेडगेवार ने जवाब दिया कि हमारे पत्र पढ़ने से उन्हें एक ही लाभ होगा, उनका जूतों पर ज्ञान बढ़ जाएगा.

शुरू में थी खाकी टोपी, बाद में काली टोपी ने ली थी इसकी जगह (Photo: AI Generated)

संघ ने इन लंबे बूट्स को भी इमरजेंसी के दौरान अलविदा कह दिया था और उनके स्थान पर आज जो काले जूते चलते हैं, उन्हें अपना लिया. दरअसल अंग्रेजों को संघ की सैन्य वेशभूषा पसंद नहीं आ रही थी. 3 जुलाई 1940 को गुरु गोलवलकर संघ के नए सरसंघचालक बने और 5 अगस्त को अंग्रेजों ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट के तहत सर्कुलर जारी कर दिया. जिसमें मिलिट्री ड्रिल, सैन्य वर्दी के इस्तेमाल के साथ-साथ किसी भी तरह की सामूहिक एक्सरसाइज पर प्रतिबंध लगा दिया. इसके चलते कई शहरों में कई सौ स्वयंसेवकों को गिरफ्तार भी कर लिया गया. इससे पहले भी डॉ हेडगेवार के समय जून 1939 में ब्रिटिश होम डिपार्टमेंट ने मध्य प्रांत की सरकार को सलाह दी थी कि संघ को प्रतिबंधित करने के लिए क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंड एक्ट (1908) के सेक्शन 16 का इस्तेमाल करे. करीब 11 महीने की कोशिश के बाद मध्य प्रांत के मुख्य सचिव ने केन्द्रीय ब्रिटिश सरकार को लिखा कि ये व्यावहारिक नहीं है, प्रतिबंध लगाने से इतना विरोध होगा कि संभलेगा नहीं.

गुरुजी के हाथ में संघ की कमान आई तो ये ब्रिटिश सर्कुलर एक तरह से उनके लिए अग्निपरीक्षा जैसा था. हजारों स्वयंसेवकों में से उन्हें सर्वोच्च दायित्व के लिए चुना गया था, उनसे उम्मीद थी कि संघ उनके नेतृत्व में और भी ऊंचाइयों को छुएगा. उन्होंने वाकई में दूरदर्शी फैसला लिया, और तय किया कि संघ के गणवेश में और प्रशिक्षण में भी कुछ बदलाव होंगे. सबसे पहले खाकी कमीज की जगह सफेद कमीज लाने का फैसला किया.

कई और बदलावों की जानकारी गुरु गोलवलकर की जीवनी के तौर पर लिखी गई शुभांगी भडभडे की पुस्तक ‘युगांतरकारी’ देती है. वो लिखती हैं, “पट्टा, पेंट व टोपी की शक्ल बदल गई. आरएसएस. नाम की पीतल की पट्टियां लगाने की प्रथा खत्म कर दी गई. प्रमुख अधिकारियों के लिए फेंटा व क्रॉस बेल्ट लगाने का रिवाज था, गुरूजी ने उसे भी बंद करवा दिया. उसी तरह अंग्रेजी में प्रचलित आदेश ‘अटेंशन’, ‘स्टेंड इट इज’, बंद करके संघ दक्ष:, संघ आरंभ जैसे आदेश शुरू किए.

प्लाटून, कंपनी जैसे शब्द बंद करके उनकी जगह गण, वाहिनी, अनिकिनी जैसे शब्द प्रचलित किए. ‘बैंड’ शब्द की जगह ‘घोष’ शब्द आ गया. उस पर बजने वाली ब्लू बेल्स, फैंसी बॉल, लवली फॉक्स जैसे गीतों की पंक्तियां बंद होकर उनकी जगह ध्वजारोहण, दुर्गा, शिवराजस्तवन, गणेश, दत्रात्रेय, चेतक, कावेरी आदि रचनाएं सस्वर बजने लगीं. इन रचनाओं में केवल शब्द ही नहीं भारतीय भावना की हुंकार भी थी.

जूतों को बदलने के बाद 2010 में चमड़े की बेल्ट भी बदल कर रैग्जीन की कर दी गई थी और उसी वक्त बरसों पुरानी मांग दोहराई गई कि नेकर की जगह पेंट होनी चाहिए ताकि उससे पहनने में संकोच कर रही युवा पीढ़ी को सहजता मिले. लेकिन ये तय हुआ कि पांच साल बाद इस विषय पर निर्णय लिया जाएगा. देश भर में स्वयंसेवकों से इस दौरान राय ली जाएगी.

करीब 6 साल बाद 2016 में संघ की प्रतिनिधि सभा ने नागौर (राजस्थान) में ये निर्णय लिया कि खाकी नेकर तो चलता ही रहेगा, उसके साथ ब्राउन पेंट भी विकल्प के रूप में पहना जा सकता है. यूं कमीज और टोपी का कलर बदला, बेल्ट और जूते का प्रकार बदला लेकिन खाकी निक्कर के स्वरूप या रंग में 90 साल तक कोई बदलाव नहीं था, ऐसे में इस बदलाव की देश भर में काफी चर्चा हुई और अगली विजयादशमी से ये चलन में भी आ गया.  
 
हालांकि ये सब ऐसे ही इतनी जल्दी भी नहीं हो गया कि ब्रिटिश सरकार का सर्कुलर आया और दवाब में कर दिया गया, बल्कि गुरु गोलवलकर ने आपदा को अवसर बनाया. उस पर अगले तीन साल तक विचार मंथन चलता रहा. इसी बीच दिल्ली, पंजाब और मद्रास में कुछ संघ अधिकारियों पर इसी वजह से अंग्रेज सरकार ने एक्शन भी लिया. आखिरकार 28 अप्रैल 1943 को गुरु गोलवलकर ने सभी शाखाओं के नाम पत्र भेजकर सैन्य प्रशिक्षण समाप्त कर दिया. संघ का सैन्य विभाग और सरसेनापति पद भी हमेशा के लिए खत्म कर दिए गए, खाकी कमीज की ही तरह.

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