नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा ने डोनाल्ड ट्रंप और उनके चाहने वालों के अरमानों पर पानी फेर दिया है. नार्वे की नोबेल कमेटी की नजर में इस साल की हीरो हैं वेनेजुएला में विपक्ष की नेता मारिया कोरीना मचाडो. पश्चिमी देश झूम रहे हैं, जैसे ढाई दशक की तानाशाही के बाद अब वेनेज़ुएला में लोकतंत्र उतरने वाला हो. पर सवाल ये है, क्या हमने आंग सान सू की से कुछ सीखा भी है या नहीं?
फिर बना दी लोकतंत्र की देवी!
नोबेल कमेटी ने मचाडो को ये इनाम इसलिए दिया कि उन्होंने ‘तानाशाही के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण लड़ाई’ लड़ी. सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन यही कहानी हमने म्यांमार में भी देखी थी, जब सू की को नोबेल मिला था और पूरी दुनिया ने उन्हें ‘शांति की देवी’ बना दिया था. वही देवी जो रोहिंग्या नरसंहार पर चुप बैठीं रहीं और उनका पूरा ताज धूल में मिल गया. अब मचाडो के साथ भी वही स्क्रिप्ट चल रही है. बस जगह बदली है, किरदार वही हैं. वेनेजुएला में क्या होगा, यह भविष्य की गर्त में छुपा है. लेकिन, विशेषज्ञ मानते हैं कि पश्चिमी देशों के डीप स्टेट अपने फायदे के लिए दुनिया के किसी भी कोने की कथित अराजकता को ऐसे ही फोकस में लेकर आते हैं.
कुछ और भी है मचाडो की हकीकत
मचाडो को निकोलस मदुरो सरकार के खिलाफ़ ‘लोकतंत्र की आवाज’ कहा जा रहा है. सच है कि सरकार ने उन्हें चुनाव लड़ने नहीं दिया, उन पर पाबंदी लगाई, परेशान किया. पर उनके आलोचक कहते हैं कि मचाडो अमीर तबके और विदेशी ताकतों की पसंद हैं. उनकी राजनीति में गरीब, मजदूर या आम जनता का हिस्सा बहुत कम दिखता है. यानी जो ‘लोकतंत्र’ के नाम पर लड़ा जा रहा है, उसमें जनता ही गायब है.
पश्चिम को हीरो चाहिए, सच्चाई नहीं
नोबेल कमेटी की पुरानी आदत है, किसी एक को चुनो, उसे ‘नायक’ बना दो, और कह दो कि अब इस देश में आज़ादी आ जाएगी. लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं. सू की को इनाम मिला, पर म्यांमार में लोकतंत्र आज तक नहीं आया. अब वही खेल मचाडो के नाम पर हो रहा है. क्या नोबेल फिर से राजनीति को भावनाओं की चाशनी में डुबोकर परोस रहा है?
अब क्या होगा?
मचाडो के नाम की घोषणा से मादुरो सरकार पर तो दबाव बढ़ेगा, पर साथ ही सरकार इसे ‘विदेशी साज़िश’ बताकर अपने समर्थकों को और भड़का देगी. मतलब जो शांति का इनाम है, वो शांति लाने की जगह लड़ाई बढ़ा सकता है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पहले अपने युद्धपोतों को वेनेजुएला के दरवाजे पहुंचा चुके हैं. ड्रग स्मगलरों पर कार्रवाई के नाम पर मध्य अटलांटिक में कुछ जहाजों पर हमले भी किए गए हैं. कुलमिलाकर वेनेजुएला पर युद्ध के बादल मंडराते जा रहे हैं.
नोबेल की वही गलती, नया चेहरा
आंग सान सू की को इनाम मिला, दुनिया ने ताली बजाई, फिर सबको पछताना पड़ा. फिलहाल ये सस्पेंस है कि क्या अब वही गलती नोबेल कमेटी ने फिर दोहराई है, बस नाम बदल गया है? मचाडो को भी उसी पायदान पर रख दिया गया है, जहाँ पहले सू की थीं.
उम्मीद की मूर्ति, लेकिन फिलहाल हकीकत से बहुत दूर.
मचाडो को इनाम मिला, ठीक है, उन्होंने साहस दिखाया, लेकिन इसे अगर ‘लोकतंत्र की जीत’ बताया जा रहा है, तो ये जल्दबाजी है.
क्योंकि असली लोकतंत्र तब आता है जब जनता की आवाज सुनी जाती है, सिर्फ किसी एक ‘फेस’ की नहीं. नोबेल कमेटी को शायद ये याद रखना चाहिए, हर बार हीरो बनाने की जल्दी में, कहीं वे सच्चाई से ज्यादा कहानी को इनाम न दे बैठें.
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