Crime Katha of Bihar: बिहार में चुनावी बिगुल बजते ही सत्ता और विपक्ष अपनी ताकत दिखाने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं. एक दौर था जब बिहार आज से बिल्कुल अलग था. ये वही बिहार है, जिसने देश आजाद होने के बाद भारत का सबसे बड़ा सांप्रदायिक दंगा देखा. बिहार की वही जमीन है, जो केवल जातीय नरसंहार ही नहीं बल्कि दंगों की वजह से भी लाल हुई. बिहार की क्राइम कथा में इस बार हम लाए हैं, कहानी भागलपुर के उन दंगों की, जो आज भी दिल दहला देती है. इस कहानी का आगाज होता है, उस दौर से जब देशभर में राम मंदिर का मुद्दा गर्मा रहा था.
राम मंदिर आंदोलन का असर
वो 24 अक्टूबर 1989 का दिन था. बिहार के भागलपुर जिले में वैसे तो वो सुबह रोज की तरह आम थी, लेकिन हवा में जैसे बारूद की गंध तैर रही थी. इलाके के तमाम मंदिरों में घंटियां बज रही थीं और गलियों में ‘जय श्रीराम’ के नारे गूंज रहे थे. देश भर में राम मंदिर आंदोलन अपने उफान पर था और भागलपुर भी साम्प्रदायिकता की आग में जलने वाला था, जिसका अंदाज़ा किसी को नहीं था. कोई नहीं जानता था कि अगले कुछ घंटे बाद भागलपुर में कयामत बरपा होने वाली थी.
फतेहपुर में भड़की चिंगारी
दो दिन पहले, यानी 22 अक्टूबर को फतेहपुर गांव में दोनों समुदायों के बीच नफरत और तनाव की लकीर खिंच चुकी थी. नारेबाज़ी और धमकियों ने माहौल को और ज़हरीला बना दिया था. लोग जान चुके थे कि कुछ बड़ा होने वाला है. लेकिन प्रशासन की आंखों पर पट्टी बंधी थी, और वही लापरवाही आगे जाकर हज़ारों जिंदगियों के खात्मे की वजह बन गई.
तातारपुर से भड़की आग
24 अक्टूबर को भागलपुर के तातारपुर इलाके में एक जुलूस निकला. कहा गया कि जुलूस पर कथित पत्थरबाजी हुई, और उसी पल ने पूरे शहर को आग में झोंक दिया. शहर के अलग-अलग इलाकों में दंगे भड़क उठे. ये दंगा अचानक नहीं फूटा था, बल्कि योजनाबद्ध था. कुछ अतिवादी हिंदू संगठनों ने पहले से सूचियां तैयार कर रखी थीं- कौन रहेगा, कौन मारा जाएगा. देखते-देखते नफरत की आग पूरे जिले में फैल गई. निशाने पर थे अल्पसंख्यकों के इलाके. ये खूनी सिलसिला अभी थमा नहीं था.
250 गांवों में तबाही का मंजर
हिंसा की आग इतनी तेज़ी से फैल रही थी कि भागलपुर के 250 से ज्यादा गांव लहूलुहान हो गए. पड़ोसी जिले मुंगेर, गोड्डा, बांका, साहेबगंज और दुमका तक इस दंगे की दहशत का असर दिख रहा था. लोग घर छोड़कर जंगलों और खेतों में छिप गए थे. मांएं अपने बच्चों को सीने से लगाकर चीखती रहीं, उन्हें बचाने की कोशिश करती रहीं. लेकिन हमलावर भीड़ की नफरत के आगे कोई तरकीब काम ना आई. दंगाईयों का गुस्सा सब कुछ निगल गया. मांओं की गोद में खुद को महफूज समझने वाले मासूम बच्चों को छीनकर दो-दो हिस्सों में काट दिया गया. उनकी मांओं के पेट चीर दिए गए. नौजवानों की आंतें तलवारों से पेट काटकर बाहर निकाल दी गईं. ऐसा लग रहा था कि वहां की जमीन का रंग ही जैसे लाल हो. ना पुलिस दिख रही थी, ना कानून. सब गायब थे.
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लाशों के ऊपर गोभी की फसल
सरकार के अनुसार, इन दंगों में 1062 लोग मारे गए थे, लेकिन ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट ने सच्चाई को उजागर किया. उस रिपोर्ट के मुताबिक, भागलपुर दंगे में मरने वालों की तादाद 1874 थी. मरने वाले 97 फीसदी लोग मुसलमान थे. 80,000 से ज़्यादा लोग बेघर हो गए थे. मरने वालों की लाशों को कुओं में भरा गया. तालाबों में फेंका गया. खेतों में गाड़ दिया गया. ताकि बाद में कोई सबूत ना मिले. सच कहा जाए तो भागलपुर की धरती अनगिनत लाशों की कब्रगाह बन चुकी थी.
लोगाई गांव में नरसंहार
27 अक्टूबर 1989 को लोगाई गांव में वह हुआ जिसे सुनकर भी रूह कांप जाती है. वहां अतिवादियों ने 116 मुसलमानों को चुन-चुनकर मारा और फिर जब लाशें सड़ने लगीं तो उन्हें गांव के खेतों के नीचे दफना दिया गया. ऊपर से फूलगोभी बोई गई. ताकि किसी को शक ना हो और ना सबूत ना मिलें. बाद में जांच के दौरान जब उस गांव के खेतों की खुदाई हुई, तो मिट्टी के नीचे दफ्न 116 इंसानी कंकाल बाहर निकले. जिंदा बचे स्थानीय लोग बताते हैं कि वहां का पानी, हवा और मिट्टी तक उस दिन के खून से रंगी थी.
जमीला बीवी की कहानी
मीडिया रिपोर्टस् के मुताबिक, लोगाई गांव की जमीला उस सुबह चूल्हे पर रोटी सेंक रही थीं. उनके दो छोटे बच्चे भूख से रो रहे थे. तभी उनके शौहर मुर्तज़ा भागते हुए घर में दाखिल हुए और अपनी बीवी जमीला से भागने के लिए बोले. जमीला घबरा गई. उसे कुछ समझ ना आया. उसने बिना वक्त गवाए दोनों मासूम बच्चों को गोद में उठाया और वहां से भाग निकली. वो दंगों की आग से बच गईं, लेकिन उनके रिश्तेदार, पड़ोसी, सब खत्म हो गए. दंगाईयों की भीड़ ने औरतों के जिस्म नोंच डाले, मासूम बच्चों के गले काट दिए और बुजुर्गों की सांसें छीन ली थी.
पुलिस की भूमिका पर सवाल
दंगे के कई गवाहों और चश्मदीदों ने कहा था कि पुलिस मूकदर्शक ही नहीं, बल्कि दंगाईयों की मददगार थी. कुछ जगहों पर तो पुलिस ने हमलावरों को रास्ता दिखाया था. दंगे का बवाल जब उरूज पर था तो कानून और पुलिस का नामों निशान देखने को नहीं मिला. फिर सेना बुलाई गई, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. वहां सब खत्म हो चुका था. जिला पुलिस और प्रशासन के कुछ अफसरों ने बीएसएफ और सेना को भी गुमराह किया. ये वही बिहार राज्य था, जहां उस वक्त कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे सत्येंद्र नारायण सिन्हा.
सत्ता की चुप्पी, जनता की चीखें
भागलपुर का दंगा काबू से बाहर था और सरकार सन्नाटे में थी. आरोप लगे कि मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार दोनों ने जानबूझकर इस मामले में देर की. जब तक सेना पहुंची, 1000 से ज़्यादा घर जलकर राख हो चुके थे. पूरे देश को इन दंगों ने दहला दिया था. जानकार कहते हैं कि देश की आजादी के बाद ये मुल्क में सबसे बड़ा दंगा था. या यूं कहें कि नरसंहार था. सियासत गर्म थी. विपक्ष मुखर. राजनीतिक दबाव बढ़ा, और मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा को कुर्सी छोड़नी पड़ी. वहीं से बिहार में कांग्रेस का पतन शुरू हो चुका था, लेकिन अफसोस कि पीड़ितों के लिए इंसाफ अब भी दूर था.
दंगो का असली सूत्रधार था कामेश्वर यादव
कहते हैं कि सच कभी छुप नहीं सकता. देर से ही सही, वो सामने ज़रूर आता है. इन दंगों के मामले में भी ऐसा ही हुआ. सच सामने आया और बेनकाब हुआ उस नरसंहार के मुख्य आरोपी कामेश्वर यादव का चेहरा. बताते हैं कि उस दरिंदे के पास 200 पहलवानों की एक निजी फौज थी. वही भागलपुर के दंगों का असली सूत्रधार था. मीडिया रिपोर्टस् के मुताबिक, उसी ने 1200 मुसलमानों को मरवाया था. दंगे के दौरान उसके लोगों की तलवारें चमक रही थीं और भीड़ उसकी जय-जयकार कर रही थी. वह खुद को बिहार का सबसे बड़ा हिंदू नेता कहता था, लेकिन उसके हाथों पर कई निर्दोषों का खून लगा था.
बिहार में सत्ता परिवर्तन
भागलपुर के दंगों की खबरें दुनिया भर में फैल चुकी थीं. भागलपुर में अल्पसंख्यकों के नरसंहार की गूंज दुनिया के कोने कोने में सुनाई दे रही थी. अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भागलपुर दंगे को आधुनिक भारत का सबसे भयानक नरसंहार बताया था. कांग्रेस के पतन के बाद सूबे में जनता दल की सरकार बनी. लालू प्रसाद यादव बिहार के नए मुख्यमंत्री बने. पर इंसाफ का पहिया कभी चला ही नहीं. ऊपर से अफसोस की बात ये थी कि दंगों के आरोपी बरी हो गए. कई आरोपियों को राजनीतिक संरक्षण हासिल था. कई अपराधी नेताओं के साथ सियासी मंच साझा करते रहे, ये वही थे जिनके हाथ खून से सने थे.
दंगा पीडितों को नहीं मिला इंसाफ
बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार के 15 साल तक इस दंगे की जांच होती रही लेकिन उसे कभी प्राथमिकता नहीं मिली. दंगे के मुख्य आरोपी कामेश्वर यादव जैसे कई दरिंदे नेताओं के साथ हेलीकॉप्टर में घूमते रहे, रैलियों में सम्मानित किए गए. मगर दंगों में जिनके घर उजड़ गए थे, वे रिलीफ कैंपों में सड़ते रहे. सैंकडों बच्चे अनाथ हुए, और महिलाएं घुट घुटकर मरती रहीं.
नीतीश कुमार के आने से जागी उम्मीद
वक्त का पहिया तेजी से घूमता रहा. साल 2005 में बिहार की सत्ता ने करवट ली. और नीतीश कुमार की सरकार आई. दंगा पीड़ितों के दिलों में एक उम्मीद जगी. सूबे की नई सरकार ने तब जस्टिस एन.ए. सिंह आयोग बनाया. हिंसा की जांच पड़ताल हुई, और साल 2007 में लोगाई गांव के नरसंहार में 14 आरोपियों को दोषी ठहराया गया. तब जाकर सरकार ने कुछ पीड़ित परिवारों को मुआवजा दिया और उनकी पेंशन शुरू की. लेकिन 116 लाशों की मिट्टी अब भी चीखती है कि इंसाफ अधूरा है.
भागलपुर की राख से उठते सवाल
तीन दशक से ज्यादा का वक्त बीत गया, लेकिन भागलपुर अब भी उस दहशत से उबर नहीं पाया है. कहा जाता है कि उस जिले में कई गांव अब भी खाली हैं, कई परिवार अब भी अपनी जमीन पर वापस नहीं लौटे. इतिहास के पन्नों पर यह अध्याय सिर्फ एक दंगे की कहानी नहीं, बल्कि इंसानी दरिंदगी और कानून की नाकामी का सबूत है. 1989 का भागलपुर दंगा भारत के दामन पर एक ऐसा दाग है, जो शायद कभी मिट नहीं पाएगा.
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