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फिलिस्तीन की मान्यता के लिए चीखते देश इजरायल पर क्यों साध लेते हैं चुप्पी, क्या आधी-अधूरी मान्यता से शांति मुमकिन? – palestine recognition israel hamas war middle east Prabowo Subianto indonesia un assembly ntcpmj


यूनाइटेड नेशन्स की महासभा में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रोबोवो सुबिआंतो के संबोधन ने तहलका मचा दिया. उन्होंने फिलिस्तीन की बात तो की, लेकिन उससे पहले इजरायल के पक्ष में कहा. यहां तक कि इजरायल को मान्यता और सुरक्षा तक देने की पैरवी की. अब तक इजरायल से सटे हुए और दूर-दराज के तमाम इस्लामिक देश सिर्फ फिलिस्तीन की आजादी मांगते रहे. लेकिन क्या सिर्फ फिलिस्तीन को स्वतंत्र देश घोषित कर देना मिडिल-ईस्ट में शांति ला सकेगा? 

क्या खास था इंडोनेशियाई नेता के संबोधन में

यूएन असेंबली में इस बार युद्ध का मुद्दा गरमाया रहा. होस्ट और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि उन्होंने सात महीनों में सात-सात लड़ाइयां खत्म करवा दीं. इस बीच जाहिर तौर पर इजरायल और हमास का जिक्र भी चला. ज्यादातर पुराने राग के बीच इंडोनेशियाई लीडर प्रोबोवो सुबिआंतो ने एकदम नई बात की. उन्होंने हमास हमले को इजरायल की ताजा आक्रामकता के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया. उन्होंने कहा कि हर कोई तेल अवीव को कोस रहा है, लेकिन कोई ये नहीं कह रहा कि हमास पहले सारे बंधकों को रिहा करे.

सुबिआंतो ने यह भी माना कि फिलिस्तीन के साथ-साथ इजरायल को भी सबसे मान्यता मिले, तभी मिडिल-ईस्ट में शांति मुमकिन है. ये पहली बार है, जब सबसे बड़े मुस्लिम देश के नेता ने खुले तौर पर इजरायल को सपोर्ट किया.

यहां ये बात सोचने की है कि फिलिस्तीन को धड़ाधड़ मिलती मान्यता के बीच, इजरायल के नाम पर चुप्पी क्यों है!

कितने देश पहले ही उसे आधिकारिक तौर पर अपना चुके, और कितने अब भी बाकी हैं?

gaza people protesting hamas amid war with israel (Photo- AP)
आतंकी संगठन हमास के खिलाफ अब गाजा पट्टी के लोग भी प्रदर्शन कर रहे हैं. (Photo- AP)

तेल अवीव को कितने देश रिकॉग्नाइज कर चुके

अब तक इजरायल को यूएन के 193 देशों में से 164 देश मान्यता दे चुके. वहीं उसे स्वंतत्र देश की तरह न मानने वालों में ज्यादातर मुस्लिम-बहुल देश हैं, जिनका लीडर अरब लीग है. ये वही देश हैं, जो इजरायल के चारों तरफ बसे हैं.

दर्जा न देने वालों में उत्तर कोरिया भी शामिल है. इसका सीधा एजेंडा है, अमेरिका का विरोध. चूंकि यूएस तेल अवीव के साथ रहा, तो उत्तर कोरिया ने उससे दूरी बना ली. बाकी सारे क्षेत्र इस्लामिक हैं, जो मानते रहे कि इजरायल को मंजूरी देना यानी फिलिस्तीन के कंसेप्ट को नकारना. धार्मिक नजरिए से भी वे इसे नकारते रहे. दरअसल यहूदियों के धार्मिक स्थल येरुशलम में मुस्लिम देश भी अपना धार्मिक और ऐतिहासिक जुड़ाव देखते रहे. 

कौन से मुस्लिम देश शामिल

कई मुस्लिम-मेजोरिटी देशों ने भी अमेरिका के कहने पर तेल अवीव से दोस्ती कर ली. साल 2020 में अब्राहम समझौता हुआ था, जब कईयों ने उसके साथ कूटनीतिक रिश्ते बनाए. इनमें यूएई और बहरीन जैसे मजबूत देश भी शामिल हैं. सऊदी अरब भी तेल अवीव के साथ हल्की-फुल्की बातचीत करने लगा, लेकिन हालिया दोहा हमले के बाद से लगभग सभी से इजरायली संबंधों में तनाव है. 

अब बात आती है कि इन देशों के मान्यता न देने से इजरायल पर क्या असर पड़ रहा है, जबकि 80 फीसदी से ज्यादा देश उसे अपना चुके? 

ये वैसा ही है, जैसा शरीर में किसी बीमारी का लगातार पलना. उसके लक्षण साफ नहीं, लेकिन जो लगातार घुन की तरह शरीर को खोखला कर दे. इजरायल ने चालीस के दशक में अपने स्वतंत्र देश होने का एलान किया था, इसके बाद से ही वो अस्थिर है. उसकी सीमाएं उन देशों से घिरी हैं, जो उसकी एग्जिस्टेंस ही नहीं चाहते. नतीजा? लगातार तनाव और छोटे-बड़े हमले. 

israel pm Benjamin Netanyahu (Photo- AP)
इजरायली नेता बेंजामिन नेतन्याहू ने हमास के साथ उसके ईरानी सपोर्ट सिस्टम को भी खत्म करने की बात कर दी. (Photo- AP)

क्या असर पड़ रहा तेल अवीव पर

चूंकि अधिकांश बड़े आर्थिक खिलाड़ियों और ग्लोबल बाजार ने इजराइल को अपना लिया है इसलिए आर्थिक तौर पर असर बहुत ज्यादा नहीं. हालांकि गाजा पर हालिया हमले की वजह से उसकी इमेज पर काफी प्रभाव पड़ा. अब तो कई यूरोपीय देश भी उसकी आलोचना करने लगे हैं.

अभी नाजुक वक्त है. यूरोप और अमेरिका जैसे पुराने साथियों के बीच शक की फांक आ चुकी. अमेरिका मान रहा है कि यूरोप को अपनी सुरक्षा के लिए खुद पैसे लगाने चाहिए. वहीं यूरोप रूस से घबराकर चाह रहा है कि यूएस उसकी मदद करे. दूर-दराज की, लेकिन एक संभावना ये भी है कि यूरोप कहीं नाराजगी में फिलिस्तीन का खुला सपोर्ट करते हुए इजरायल विरोधी न बन जाए. 

अब आता है फिलिस्तीन का पक्ष

साल 1947 में यूएन ने खुद पार्टिशन प्लान दिया था. इसमें प्रस्ताव था कि दो देश बनें- एक यहूदियों का यानी इजरायल और दूसरा अरबों का यानी फिलिस्तीन. इसका मकसद दोनों पक्षों को पहचान और सुरक्षा की गारंटी देना था. यूएन ने कह तो दिया लेकिन इसके लागू होने में कई जमीनी दिक्कतें हैं. पूर्वी येरुशलम और वेस्ट बैंक को लेकर विवाद है कि ये किनके हिस्से जाएगा. कई और मसले भी हैं, जिनकी वजह से कोई पक्का हल नहीं निकल सका. इस सबके बीच फिलिस्तीन का मामला भी अटक गया. उसे धीरे-धीरे करके मान्यता मिलती रही. 

फिलहाल इसमें तेजी आई है और यूएन देशों में से 157 उसे स्वतंत्र स्टेट मान चुके. हालांकि अब भी ये नंबर इजरायल से कम है. ऐसे में सीमाओं, येरुशलम और बाकी संसाधनों पर विवाद बना ही रहेगा. मतलब, आंशिक मान्यता का कोई फायदा नहीं हो सकेगा. 

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