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पटना एयरपोर्ट पर कांग्रेस नेताओं के बीच जो घमासान हुआ उसकी नौबत क्यों आई – why Congress workers fight at Patna airport bihar election seat sharing drama opns2


पटना एयरपोर्ट पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा प्रदेश प्रभारी कृष्णा अल्लावरु, प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम और विधायक दल नेता शकील अहमद खान के खिलाफ प्रदर्शन और एक युवा नेता की पिटाई का वीडियो सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रहा है. कहा गया कि बिहार विधानसभा चुनाव की दहलीज पर महागठबंधन (INDIA ब्लॉक) में सीट-वितरण पर गतिरोध को लेकर कार्यकर्ताओं के रोष का यह प्रत्यक्ष परिणाम था. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पार्टी में गुटबंदी के चलते यह सब हुआ होगा. पर सवाल यह उठता है कि ऐसी नौबत ही क्यों आई? जाहिर है कि ऐसी घटनाओं अगर होंगी तो नेतृत्व की पार्टी पर पकड़ पर सवाल तो उठेंगे ही.

1-केंद्रीय नेतृत्व का ढुलमुल रवैया और समन्वय की कमी

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के ठीक पहले कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट संगठनात्मक कमजोरी नहीं, बल्कि रणनीतिक देरी और समन्वय की कमी है. यह वही गलती है जो पार्टी पिछले एक दशक से बार-बार दोहरा रही है और हर बार इसका राजनीतिक नुकसान राज्य इकाइयों को उठाना पड़ता है.

बिहार में सीट बंटवारे को लेकर महागठबंधन (INDIA ब्लॉक) के भीतर जो असमंजस बना रहा, उसकी मुख्य वजह यह थी कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्वत विशेष रूप से राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और संगठन महासचिव के.सी. वेणुगोपाल आदि समय पर निर्णय नहीं ले सके. 

राज्य इकाई लगातार दिल्ली से स्पष्ट निर्देशों की प्रतीक्षा करती रहीं, लेकिन उम्मीदवारों के नाम और सीटों की संख्या पर सहमति अंतिम क्षणों में बनी. परिणाम यह हुआ कि न तो कांग्रेस अपने गठबंधन सहयोगियों के सामने मजबूत स्थिति में रही, और न ही अपने कार्यकर्ताओं के बीच आत्मविश्वास जगा पाई.

सूत्रों के अनुसार, प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम और प्रभारी कृष्णा अल्लावरु ने अगस्त से ही हाईकमान को बिहार की ज़मीनी स्थिति से अवगत कराया था. उन्होंने स्पष्ट कहा था कि पार्टी को कम से कम 65 सीटों पर लड़ने की तैयारी रखनी चाहिए, ताकि राजद के दबाव का मुकाबला किया जा सके. लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने इस सुझाव पर ठोस निर्णय नहीं लिया. 

सितंबर के अंतिम सप्ताह तक टिकट वितरण और प्रचार रणनीति पर कोई स्पष्ट रोडमैप नहीं था. जब तक शीर्ष स्तर पर बातचीत आगे बढ़ी, तब तक राजद ने न केवल सीटों का बंटवारा अपने पक्ष में तय कर लिया, बल्कि जनता में यह संदेश भी फैला दिया कि कांग्रेस अब केवल सहयोगी की भूमिका में है. और इस पर मुहर लगा दिया राहुल गांधी की विदेश यात्रा ने. ऐन बिहार चुनाव के मौके पर राहुल गांधी सवाल यह उठता है कि कांग्रेस पार्टी जो कुछ दिनों पहले 2 हफ्ते के लिए मुख्य परिदृश्य से गायब हो गए. जाहिर है कि इससे साफ संदेश गया कि कांग्रेस अब आरेजेडी की पिछलग्गू बनकर ही रहना चाहती है.

समन्वय की कमी सिर्फ राजद के साथ नहीं, बल्कि पार्टी के भीतर भी साफ दिखाई दी है. बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी, चुनाव समिति और केंद्रीय स्क्रीनिंग कमेटी के बीच लगातार मतभेद रहे. कई सीटों पर दो-दो उम्मीदवारों के नाम दिल्ली भेजे गए, जिससे संगठन की गंभीरता पर सवाल उठे.

राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि कांग्रेस का यह उलझा हुआ निर्णय-प्रक्रिया पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है. जब नेतृत्व समय पर फैसले नहीं लेता, तो कार्यकर्ता निराश हो जाते हैं और गठबंधन सहयोगी पार्टी को हल्के में लेने लगते हैं.  कांग्रेस अपनी आंतरिक देरी और आपसी तालमेल की अभाव की वजह से महागठबंधन में अपनी पुरानी सीटे भी गंवा बैठी, बल्कि अपनी समान भागीदारी की दावेदारी भी खो चुकी है.

साफ है कि कांग्रेस हाईकमान ने समय रहते स्पष्ट और निर्णायक रणनीति अपनाई होती, तो आज बिहार में उसके सामने सम्मान का संकट खड़ा नहीं होता.

2-प्रदेश नेतृत्व की संवादहीनता और अंदरूनी गुटबाज़ी

बिहार कांग्रेस की मौजूदा स्थिति का दूसरा बड़ा कारण है प्रदेश नेतृत्व की संवादहीनता और गुटबाज़ी. यह समस्या नई नहीं है, बल्कि लंबे समय से चली आ रही उस परंपरा का हिस्सा है जिसमें पार्टी के नेता संगठन के बजाय अपनी व्यक्तिगत राजनीति को प्राथमिकता देते हैं. विधानसभा चुनाव 2025 के ठीक पहले यह प्रवृत्ति और गहरी हो गई है, जिससे न केवल कार्यकर्ताओं में असंतोष फैला, बल्कि गठबंधन में कांग्रेस की साख भी कमजोर हुई.

प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम, प्रभारी कृष्णा अल्लावरु, और विधायी दल के नेता शकील अहमद खान के बीच समन्वय का अभाव खुलकर सामने आ चुका है. तीनों नेताओं की कार्यशैली और राजनीतिक दृष्टिकोण में स्पष्ट मतभेद हैं. 

दूसरी ओर, कृष्णा अल्लावरु दिल्ली दरबार के प्रतिनिधि माने जाते हैं, जिन पर स्थानीय नेताओं से संवाद न रखने और टिकट वितरण में एकतरफा रवैया अपनाने के आरोप हैं. यह संवादहीनता चुनावी तैयारी के हर स्तर पर दिखाई दी. कई जिलों में जिला कांग्रेस कमेटी और प्रदेश कमेटी के बीच तालमेल नहीं रहा. उम्मीदवार चयन से पहले स्थानीय नेताओं की राय नहीं ली गई, जिससे कार्यकर्ताओं में नाराजगी फैली. यही कारण रहा कि पटना एयरपोर्ट पर पार्टी कार्यकर्ताओं ने अपने ही प्रदेश प्रभारी और अध्यक्ष के खिलाफ नारेबाजी की. यह केवल असंतोष नहीं था, बल्कि नेतृत्व पर भरोसे के टूटने का संकेत था.

3- महागठबंधन में सीट-शेयरिंग पर कठिन सौदेबाजी

कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के बीच सीटों की संख्या और कुछ खास विधानसभाओं पर अपने प्रत्याशी उतारने की असहमति के चलते पहले चरण के नामांकन के सेकंड लास्ट दिन अभी तक महागठबंधन में सरफुट्टौवल जारी है.  2020 के चुनावों में कांग्रेस 70 सीटों पर लड़कर 19 जीती थी, जबकि RJD ने 144 पर लड़कर 75 हासिल की थी. अब कांग्रेस वही 70 सीटें चाहती है, लेकिन RJD अपना हिस्सा घटाना नहीं चाहता है. जबकि गठबंधन में नए खिलाडियों के लिए भी जगह बनानी है. 

 यह विवाद दिल्ली में हुई बैठकों (जैसे KC वेनुगोपल और तेजस्वी के बीच) में टूट गया, जिससे संबंध तनावपूर्ण हो गए. इसके बाद RJD और कांग्रेस के बीच सोशल मीडिया पर शेरो शायरी के जरिए एक दूसरे पर हमले भी हुए.  सांसद मनोज झा ने ट्वीट पर दोहा (टूटे मन का मनुजा मिटे ना गठरी) से इशारा किया, तो कांग्रेस के इमरान प्रतापगढ़ी की ओर से भी उसी स्टाइल में शेरो शायरी के साथ जवाब दिया गया. 

दूसरी तरफ अन्य सहयोगियों की भूमिका भी कोई ठीक नहीं है. CPI-ML, CPI, CPM, JMM और VIP (मुकेश साहनी) जैसे दलों के बीच भी अलग अलग दावे हैं. मुकेश सहनी का मुद्दा हाल ही में सुलझा, लेकिन लेफ्ट पार्टियां अपनी पारंपरिक सीटें छोड़ने को तैयार नहीं हैं.

4-राजद की आक्रामक डील-पॉलिटिक्स, जिसने कांग्रेस को हाशिये पर धकेल दिया

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की तैयारी के दौरान महागठबंधन (INDIA ब्लॉक) में सीट-वितरण का सबसे बड़ा निर्णायक कारक रहा . राजद (राष्ट्रीय जनता दल) की आक्रामक डील-पॉलिटिक्स. तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी ने इस बार जिस रणनीतिक तरीके से सीटें बांटने की राजनीति की, उसने कांग्रेस को स्पष्ट रूप से हाशिए पर धकेल दिया.

तेजस्वी यादव, जो अब पूरी तरह से पार्टी के फैसलों के केंद्र में हैं, ने गठबंधन की राजनीति को बराबरी की साझेदारी के बजाय नेतृत्व की श्रेष्ठता के रूप में स्थापित किया. उनका मानना है कि बिहार की राजनीति में राजद ही सबसे बड़ा वोट-बैंक नियंत्रित करता है. खासतौर पर यादव-मुस्लिम समीकरण तो उसके मुट्ठी में है. इसलिए सीटों के बंटवारे में उन्हें प्राथमिकता मिलनी चाहिए. यही वजह रही कि 2020 में जहां कांग्रेस को 70 सीटें मिली थीं, वहीं 2025 में उसे केवल 58 सीटों पर सीमित करने की कोशिश चल रही है.

राजद की यह रणनीति महज सीट-वितरण तक सीमित नहीं रही. पार्टी ने उम्मीदवार चयन, प्रचार अभियान, और गठबंधन की नैरेटिव-सेटिंग तक में खुद को मुख्य चेहरा बनाकर पेश किया. उदाहरण के तौर पर, तेजस्वी ने चुनावी रैलियों में खुद को लगातार महागठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश किया. जबकि कांग्रेस ने कभी खुलकर तेजस्वी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में अब तक स्वीकार नहीं किया.तेजस्वी के ने बिहार की जनता से कई वादे किये पर कहीं भी कांग्रेस उन वादों में शामिल नहीं है. 

कांग्रेस, जो पहले से ही संगठनात्मक रूप से कमजोर थी, इस आक्रामक डील-पॉलिटिक्स के सामने बचाव की स्थिति में आ गई. उसके नेताओं के पास मोलभाव की ताकत नहीं थी क्योंकि न तो उनका वोट-बैंक मजबूत है और न ही वे अपने दम पर चुनावी समीकरण बदल सकते हैं. 
 

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