Isobutanol Blending In Diesel: देश भर में एथेनॉल ब्लेंड पेट्रोल (E20 Fuel) पर हो हल्ला मचा हुआ है. आए दिन वाहन मालिक इस बात की शिकायत कर रहे हैं कि, ई20 पेट्रोल के इस्तेमाल के बाद उनके वाहनों का माइलेज प्रभावित हुआ है और मेंटनेंस खर्च भी बढ़ा है. इस मामले में हाल ही में एक सर्वे रिपोर्ट भी सामने आई है, जिसमें 10 में से 8 लोगों ने E20 फ्यूल के चलते वाहनों पर पड़ने वाले दुषप्रभाव को स्वीकार किया है. अब सरकार पेट्रोल के बाद डीजल में भी मिलावट की तैयारी में है. जिसका असर न केवल डीजल से चलने वाले कारों, ट्र्रैक्टर, ट्रक और बस पर पड़ेगा बल्कि इससे देश की एक बड़ी मशीनरी भी प्रभावित होगी.
क्या है सरकार का प्लान?
कुछ दिनों पहले पुणे में प्राज इंडस्ट्रीज द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि, “एथेनॉल हमारे लिए एक शुरुआत है, ये कोई अंत नहीं है. प्राज इंडस्ट्री और ARAI ने एथेनॉल के बाद आइसोब्यूटेनॉल पर काम करना शुरू किया है. अभी वो डीजल में 10% आइसोब्यूटेनॉल डालकर प्रयोग कर रहे हैं. इसके अलावा उन्होंने किर्लोस्कर के साथ मिलकर 100% आइसोब्यूटेनॉल पर चलने वाला इंजन भी तैयार किया है.”
नितिन गडकरी ने कहा कि, “आइसोब्यूटेनॉल डीजल का एक बेहतरीन विकल्प बन सकता है. हमारे देश में पेट्रोल के तुलना में डीजल का प्रयोग ढाई से तीन गुना ज्यादा होता है. रिसर्च, ट्रायल और स्टैंडर्ड निश्चित होने के बाद जब इसका प्रस्ताव पेट्रोलियम मिनिस्ट्री को जाएगा और मंत्रालय से इसको मान्यता मिलेगी तब इसका मार्केट और भी बढ़ेगा.”
यानी पेट्रोल में 20 फीसदी एथेनॉल मिलाने के बाद सरकार डीजल में आइसोब्यूटेनॉल मिलाने की तैयारी में है. इस मिलावट का असर न केवल वाहनों पर बल्कि देश उन इंडस्ट्री पर भी बखूब पड़ेगा जिसकी मशीनरी में डीजल का इस्तेमाल होता है.
क्या होता है आइसोब्यूटेनॉल?
फिलहाल, डीजल में आइसोब्यूटेनॉल की ब्लेंडिंग पर रिसर्च की जा रह है और ये अपने शुरुआती चरणों में है. लेकिन इससे पहले यह समझना भी जरूरी है कि आखिर आइसोब्यूटेनॉल होता क्या है. आइसोब्यूटेनॉल (C₄H₁₀O) जो कि एक रंगहीन और गंधहीन पदार्थ होता है, ये मूल रूप से एल्केनॉल (अल्कोहल) ग्रुप से आने वाला एक कलरलेस, फ्लेमेबल ऑर्गेनिक लिक्विड है. इसे डीजल में ब्लेंडर की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. जैसा कि इस समय पेट्रोल में एथेनॉल का इस्तेमाल होता है. ये एक रिन्यूएबल फ्यूल है जो बायोमास या शुगर बेस्ड फीडस्टॉक से बनाया जाता है.
डीजल में आइसोब्यूटेनॉल की ब्लेंडिंग पर अधिकतर रिसर्च ये इशारा करती हैं कि पर्यावरण के लिहाज से तो ये फायदेमंद है, मगर इंजन के लिए इसके नुकसान ज्यादा हैं. खासतौर पर पुराने डीजल इंजनों के लिए ज्यादा हानिकारक साबित हो सकता है. तो आइये समझें ये नया प्रयोग किस तरह से वाहनों और मशीनरी को प्रभावित करेगा.
सीटेन नंबर
आगे बढ़ने से पहले सीटेन नंबर को समझ लें. सीटेन नंबर (Cetane Number) डीजल की दहन गुणवत्ता (Combustion Quality) को दर्शाने वाला एक महत्वपूर्ण मापदंड है. यह बताता है कि डीजल इंजन में फ्यूल कितनी जल्दी और आसानी से जलना शुरू करता है. सरल शब्दों में, सीटेन नंबर जितना अधिक होगा, डीजल उतनी ही आसानी से और स्मूद तरीके से जलता है, जिससे इंजन का नॉइज़, कंपन और धुआं कम होता है. आमतौर पर डीजल का सीटेन नंबर 45 से 55 के बीच होता है. अगर यह नंबर बहुत कम हो तो इंजन में नॉकिंग और डिले स्टार्टिंग जैसी समस्याएं आ सकती हैं. जबकि हाई सेटेन नंबर बेहतर परफॉर्मेंस, कम उत्सर्जन और माइलेज को बेहतर करता है.
आइसोब्यूटेनॉल में लो सीटेन नंबर
आइसोब्यूटेनॉल का सीटेन नंबर बहुत कम यानी लगभग 10–15 के बीच होता है. इससे यह साफ है कि, इंजन में डिले स्टार्टिंग या लो-परफॉर्मेंस जैसी समस्या हो सकती है. इसके अलावा रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि, इंजन के पावर और टॉर्क में भी 3 से 5 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है.
इंजन परफॉर्मेंस पर असर
- हल्के ब्लेंडिंग (जैसे 10–20%) में आइसोब्यूटेनॉल डालने से इंजन की स्मूदनेस बढ़ सकती है.
- इसकी ऊष्मीय क्षमता (Calorific Value) डीजल से कम होती है, इसलिए माइलेज और पावर आउटपुट में थोड़ी गिरावट देखी जा सकती है.
- ज्यादा ब्लेंडिंग (50% या अधिक) से इंजन के फ्यूल इंजेक्शन सिस्टम और सील्स पर असर पड़ सकता है. क्योंकि आइसोब्यूटेनॉल की रासायनिक प्रकृति डीजल से भिन्न होती है.
इंजन लाइन और लुब्रिकेशन पर प्रभाव
आइसोब्यूटेनॉल की लुब्रिसिटी (Lubrication Property) डीजल की तुलना में कम होती है. जिससे लंबे समय तक इसके इस्तेमाल से वाहन के इंजेक्टर, पंप और वाल्व पर घिसावट का खतरा बढ़ सकता है. इसलिए इसे केवल सीमित अनुपात में मिलाना बेहतर होता है (आमतौर पर 10–20%) तक की ब्लेंडिंग को बेहतर माना जाता है. लंबे समय तक इसके इस्तेमाल से इंजन की लाइफ पर भी असर पड़ सकता है.
ओवरहीट… एक बड़ी समस्या
डीजल में आइसोब्यूटेनॉल की ब्लेंडिंग का असर वाहनों के मेंटनेंस पर भी पड़ेगा. चाहे वो कार हों, ट्रैक्टर, ट्रक या बस. इसमें ऑक्सीजन कंटेंट ज्यादा होता है (लगभग 11%), जिसके चलते कम्बंशन के समय ज्यादा हीट उत्पन्न होती है. इससे पुराने वाहनों का इंजन कम समय में ही ओवरहीट हो सकता है. इसके अलावा वाहनों के वाल्व/पिस्टन के डैमेज होने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है.
ट्रैक्टर और ट्रकों पर असर
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक देश में इस समय तकरीबन 1 करोड़ ट्रक, करीब 18 लाख रजिस्टर्ड बसें और देश में लगभग 40% किसानों के पास ट्रैक्टर हैं. इनमें से ज्यादातर वाहन पुराने हैं, यहां तक की कुछ किसान तो पिछले दो पीढ़ियों से एक ही ट्रैक्टर का इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसे में डीजल में आइसोब्यूटेनॉल की ब्लेंडिंग इनके लिए काफी नुकसानदेह साबित हो सकती है. क्योंकि इन पुराने ट्रैक्टर और ट्रकों के इंजन को नए आधुनिक फ्यूल के हिसाब से डिज़ाइन नहीं किया गया है.
बहरहाल, डीजल में आइसोब्यूटेनॉल को मिलाने को लेकर शोध अभी चल रही है. जैसा कि नितिन गडकरी ने भी बताया कि, इससे जुड़ी एजेंसियां इस पर प्रयोग कर रही हैं. यानी अभी इस डीजल ब्लेंडिंग पर अंतिम रिपोर्ट आने में थोड़ा समय लगेगा. अभी इस बात की भी जानकारी नहीं मिली है कि, सरकार डीजल में इसका प्रयोग कब शुरू करेगी. अभी ये प्रोजेक्ट शुरुआती चरण में है और रिसर्च/प्रयोग में सफलता मिलने के बाद इसका प्रस्ताव संबंधित मंत्रालय को भेजा जाएगा, जहां से इसे आखिरी मंजूरी मिलेगी.
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