कार्तिक मास की शुरुआत हो चुकी है. अध्यात्म और पौराणिक संदर्भों को देखें तो कार्तिक के महीने में रात्रिकाल का महत्व बढ़ जाता है तो साथ ही इस महीने में चंद्रदेव का भी महत्व है. तंत्र में कार्तिक की रात्रि को जागरण और सिद्धि की रात बताया गया है और इस दौरान ही चंद्रमा का दैवीयकरण भी होता है. ज्योतिष में चंद्रमा मन और मातृ छाया का प्रतीक है. ज्योतिष कहता है कि अगर आपकी मां आपसे प्रसन्न हैं और संतुष्ट हैं तो आपकी कुंडली और जीवन में चंद्रमा के कोई भी दोष कष्ट नहीं देंगे.
चंद्रमा को प्रीति-प्रेम और रतिभाव का स्वामी भी बताया गया है. वह सौभाग्य का भी प्रतीक है और ऐश्वर्य का भी वरदान देने वाला देव है. इसीलिए कार्तिक मास में किए जाने वाले व्रतों में चंद्रपूजा और चंद्र अर्घ्य का महत्व बढ़ जाता है. कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को किया जाने वाला करवा चौथ व्रत चंद्र देव को देखकर ही पूरा होता है.
करवा चौथ, अहोई अष्टमी और कार्तिक पूर्णिमा
इसी तरह अहोई अष्टमी का व्रत कार्तिक कृष्ण अष्टमी को होता है. महिलाएं इस दिन शाम को तारे देखकर और कहीं-कहीं पर चंद्रमा को अर्घ्य देकर ही व्रत खोलती हैं. कार्तिक पूर्णिमा चंद्रमा की पूर्णता का पर्व है.
चंद्रमा कौन है, किनका अवतार है और किस रूप में उसका पुराणों में जिक्र हुआ है, इसकी अलग-अलग कथाएं पुराणों में वर्णित है. भागवत पुराण में चंद्रमा का जिक्र एक अवतार के तौर पर होता है और वह अन्य देवताओं की तरह ऋषि कश्यप और देवमाता अदिति के पुत्र नहीं हैं. बल्कि उनके माता-पिता महर्षि अत्रि और अनुसूया हैं. इसी आधार पर आगे चलकर क्षत्रियों के एक वंश चंद्रवंश की भी स्थापना हुई जिनके अधिपति चंद्रमा ही हैं.
भागवत पुराण के अनुसार चंद्रमा का जन्म ब्रह्मा के ही अंश से हुआ है. चंद्रमा के जन्म लेने और अवतार की कथा बहुत ही रोचक और विचित्र है. कहानी के अनुसार एक बार देवर्षि नारद विष्णुलोक गए हुए थे. वहां देवी लक्ष्मी के साथ सरस्वती और पार्वतीजी भी मौजूद थीं. इस दौरान तीनों देवियों में नारियों के सती और सतीत्व की चर्चा हो रही थी. इस प्रसंग को लेकर नारद मुनि ने कहा कि धरती लोक में भी सतीत्व का पालन करने वाली स्त्रियां कम नहीं हैं. तब देवियों ने कहा कि किसी एक का नाम ही बता दीजिए, तब देवर्षि ने सती अनुसूया का नाम लिया.
सती अनुसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने पहुंचे त्रिदेव
तीनों देवियों को अपने सतीत्व पर अहंकार हो गया था, इसीलिए उन्होंने ब्रह्मा-विष्णु और शंकरजी को सती की परीक्षा के लिए भेज दिया. त्रिदेव साधु वेश में अत्रि मुनि के आश्रम में पहुंचे. उस समय ऋषि अत्रि कहीं गए हुए थे. आश्रम में देवी अनुसूया ही थीं. उन्होंने ऋषियों का स्वागत किया और भोजन करने के लिए आग्रह किया. ऋषियों ने उनके सामने शर्त रखी कि हम तभी भोजन ग्रहण करेंगे, जब आप हमें अपने हाथों से स्नान कराकर भोजन कराएंगी. सती अनुसूया ने उनकी बात मान ली और कहा कि ठीक है, आंगन में चलिए.
इसके बाद ऋषि पत्नी ने तुरंत ही अपने योगबल से उन तीनों ऋषियों को 6 महीने के नवजात बालकों में तब्दील कर दिया और जैसे मां, बच्चों को स्नान कराती है, वैसे ही स्नान कराया और फिर उन्हें दूध पिलाकर सुला दिया. इस तरह तीनों देव अनुसूया के पुत्र बनकर आश्रम में खेलने लगे. इस तरह वे मानव जीवन के चक्र में बंध गए थे. ऋषि अत्रि आश्रम पहुंचे तो उन्होंने बालकों के दिव्य चिह्न देखकर उन्हें त्रिदेवों के रूप में पहचान लिया तब अनुसूया ने उन्हें सारी बात बताई. ऋषि भी तीनों बालकों को पुत्र मानकर उनका पालन-पोषण करने लगे.
देवताओं ने दिया सती अनुसूया को वरदान
इधर, जब कई दिनों से जब त्रिदेव अपने लोक नहीं पहुंचे तो देवियों को चिंता सताने लगी. वह उन्हें खोजने अत्रि आश्रम पहुंची. सती अनुसूया ने उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा. तब देवियों ने बताया कि हमारे पति आपकी परीक्षा लेने आए थे, लेकिन लौटे नहीं. वे कहां हैं? तब अनुसूया ने पालने की ओर इशारा करके कहा, धीरे बोलिए, मेरे छोटे-छोटे बच्चे अभी सो रहे हैं. आप चाहें तो अपने-अपने पति पहचान कर चुन लें. देवियों ने जब पालने में झांका तो चकित रह गईं, त्रिदेव नवजात शिशुओं में बदले हुए थे. तब देवियों ने सती अनुसूया को परम सती माना और उनकी स्तुति कर त्रिदेवों को इस बंधन से मुक्त करने की विनती की. सती अनुसूया ने अपना योगबल खींच लिया और त्रिदेव अपने असली रूप में वापस आ गए. उन्होंने सती अनुसूया को कई वरदान दिए और उनसे मिले मां के वात्सल्य और प्रेम का मान रखते हुए, अपने-अपने अंश से एक-एक बालक उसी शिशु रूप में छोड़ गए.
ब्रह्मा के अंश से हुआ चंद्रमा का जन्म
इनमें ही ब्रह्मा जी के अंश से चंद्रमस का जन्म हुआ, शंकरजी का अंश दुर्वासा कहलाया और भगवान विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ. चंद्रमस ने ही बड़े होकर वेद-वेदांत और सभी शास्त्रों का अध्ययन किया, इसके बाद 1000 वर्षों की कठोर तपस्या की. इस तपस्या से उन्हें कई सिद्धियां मिलीं. ब्रह्नदेव ने उन्हें ऐश्वर्य का वरदान दिया और इसी ऐश्वर्य के वरदान से वह चंद्रलोक के अधिपति बने और चंद्रमा कहलाए.
कई तरह की सिद्धियों और ऐश्वर्य के स्वामी होने के कारण ही चंद्रदेव व्रत के पूर्ण होने के पूरक बने हैं. ऋग्वेद में उन्हें सोम कहकर पुकारा गया है और सोमसूक्त चंद्रमा की ही वंदना और यज्ञ आह्वान के लिए गाई जाने वाली स्तुति है.
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