0

शरद पूर्णिमा… क्या है चंद्रमा की 16 कलाएं जिनसे रोशन है आज की रात – sharad purnima sixteen kalas spiritual significance lord krishna ntcpvp


आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि को शरद पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है. यह रात बहुत दिव्य मानी जाती है और अध्यात्म में इसका बहुत महत्व है. इसे कहीं-कहीं कोजागरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है. कहा जाता है कि शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा अपनी संपूर्ण 16 कलाओं के साथ दमकता है. इन 16 कलाओं को 16 प्रकार के गुणों के रूप में जाना जाता है और यही 16 कलाएं मनुष्य को मिल जाएं तो उसे देवत्व दिला सकती हैं.

12 कलाओं से युक्त थे श्रीराम

पुराणों में वर्णन है कि श्रीराम 12 कलाओं से युक्त थे तो वहीं भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के पूर्णावतार थे. चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं और स्त्रियों के सोलह शृंगार भी एक प्रकार से हर एक कला के ही शृंगार हैं. उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्‍वरतुल्य होता है. आखिर ये 16 कलाएं क्या है?

चंद्रमा की किरणों में होते हैं विशेष गुण

चंद्रमा के विशेष गुण उसकी किरणों में होते हैं. जैसे सूर्य की सात किरणें होती हैं, उसी तरह चंद्रमा की चांदनी में फैलने वाली 16 तरह की किरणें ही सोलह कलाएं होती हैं. हमारे मन-मस्तिष्क में जिस भी तरह के विचार उठते हैं उनका सीधा संबंध चंद्रमा से होता है.

आपने सुना होगा कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है.

चंद्रमा की 16 कलाएं

चन्द्रमा की सोलह कलाएं अमृत, नंदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, धृति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत. इसी को प्रतिपदा, द्वितीया, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है. ये सभी चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं. इसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है. मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है. जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है. चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ.

इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलगे अलग मिलते हैं.

1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया,

5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी,  7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी,

9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी,

13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण 16.स्वरूपवस्थित.

कुछ जगहों पर सोलह कलाओं में प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक और नाम ये भी आते हैं.

भगवान् श्रीकृष्ण की सोलह कलाएं: योग सिद्धि में इन कलाओं का ज्ञान लाभदायक हैं.

1. अमृतदा- जीवात्मा तथा परमात्मा का साक्षात्कार कराकर ज्ञान रूपी अमृत पिलाकर मुक्त करने वाली कला अमृतदा है .

2. मानदा-  मानवती स्वाभिमानिनी गोपिकाओं को मान देने वाली . भगवान् की रास-क्रीड़ा में दो प्रकार की गोपिकाएं थी . उनमें से एक निराभिमानिनी तथा दूसरी मानिनी थी . उनमें राधा सहित आठ सखियां मानिनी थी. बात-बात में रूठ जाती थी . तब भगवान् उन्हें अनुनय-विनय द्वारा मनाया करते थे .— यह भगवान् की कला इसी कारण मानदा कही गई है .

3 . पूषा- अनन्त-कोटि ब्रह्माण्ड का भरण-पोषण करने वाली .

4 . पुष्टि- गीता के पन्द्रहवें अध्याय में भगवान् ने कहा है —

“पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमोभूत्वा रसात्मक:.”

मैं रस-स्वरूप चन्द्रमा होकर सभी औषधियों को पुष्ट करता हूँ . अर्थात् औषधि शब्द का प्रयोग यहां पर सभी स्थावर-जंगम प्राणियों को पुष्ट करने के अर्थ में है . ऐसी भगवान् की कला पुष्टि नाम की है .

5 . तुष्टि- प्रारब्धानुसार जो प्राप्त हो जाये , उसी में सन्तोष देने वाली शक्ति तुष्टि कही जाती है .

6 . रति- भगवान् के प्रति अभेद तथा स्वार्थ रहित अनुरागात्मक भक्ति रति है .

7 . धृति- अनुकूल पदार्थों के मिलने पर उनको शीघ्र न भोगने की सामर्थ्य तथा प्रतिकूल दुःख देने वाले पदार्थों के मिलने पर मन-बुद्धि को स्थिर रखने वाली कला का नाम धृति है .

8 . शीर्षणि- विदेह-कैवल्य मुक्ति देने वाली शक्ति शीर्षणि है .

9 . चण्डिका- बाहर तथा भीतर के शत्रुओं को दण्डित करने वाली शक्ति चण्डिका है .

10 . कान्ति- भगवान् की स्वयंप्रकाशिनि कला कान्ति है .

11 . ज्योत्स्ना- शम-दमादि के द्वारा शीतल प्रकाश देकर अंतःकरण की ज्योति को जलाकर परमात्मा की दिव्य ज्योति से मिलाने वाली कला ज्योत्स्ना है .

12 . मोक्षदा- ब्रह्म-विद्या के द्वारा जीव के तीनों कर्म , तीनों शरीरों को ज्ञानरूपी अग्नि से दग्ध करके ब्रह्म के साथ मिलाने वाली कला मोक्षदा है .

13 . प्रीति- लोक-परलोक के अपयश या नरक के भय की चिन्ता से रहित भगवान् के प्रति सच्चा अनुराग कराने वाली कला प्रीति है .

14. अंगदा- भगवान् के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग के समान सारूप्य मुक्ति देने वाली कला अंगदा है .

15 . पोषणा- अष्टाङ्ग-योग के द्वारा या नवधा-भक्ति के द्वारा

16 . पूर्णा- भगवान् की वह शक्ति जो जीव की सम्पूर्ण उपाधियों को दूर करके सच्चिदानन्द रूपी महासागर में लीन कर भगवान् के पूर्ण पद को प्राप्त कराने वाली कला है

सामान्य जीवन में कला की निधियां

सामान्य शाब्दिक अर्थ के रूप में देखा जाए तो कला एक विशेष प्रकार का गुण मानी जाती है. यानि सामान्य से हटकर सोचना, समझना या काम करना. भगवान विष्णु ने जितने भी अवतार लिए सभी में कुछ न कुछ खासियत थीं और वे खासियत उनकी कला ही थी. जैसे भगवान राम को 12 कलाओं का ज्ञान था. साधारण मनुष्य में पांच कलाएं और श्रेष्ठ मनुष्य में आठ कलाएं होती हैं.

श्री संपदा – जिसके पास भी श्रीकला या संपदा होगी वह धनी होगा. धनी होने का अर्थ सिर्फ पैसा व पूंजी जोड़ने से नहीं है बल्कि मन, वचन व कर्म से धनी होना चाहिए. यदि कोई आस लेकर ऐसे व्यक्ति के पास आता है, तो वह उसे निराश नहीं लौटने देता. 

भू संपदा – इसका अर्थ है कि इस कला से युक्त व्यक्ति बड़े भू-भाग का स्वामी हो, या किसी बड़े भू-भाग पर आधिपत्य अर्थात राज करने की क्षमता रखता हो.

कीर्ति संपदा – कीर्ति यानि की ख्याति, प्रसिद्धि अर्थात जो देश दुनिया में प्रसिद्ध हो. लोगों के बीच लोकप्रिय हो और विश्वसनीय माना जाता हो. जन कल्याण कार्यों में पहल करने में हमेशा आगे रहता हो.

वाणी सम्मोहन – कुछ लोगों की आवाज में सम्मोहन होता है. लोग न चाहकर भी उनके बोलने के अंदाज की तारीफ करते हैं. ऐसे लोग वाणी कला युक्त होते हैं, इन पर मां सरस्वती की विशेष कृपा होती है. 

लीला – इस कला से युक्त व्यक्ति चमत्कारी होता है और उसके दर्शनों से ही एक अलग आनंद मिलता है. श्री हरि की कृपा से कुछ खास शक्ति इन्हें मिलती हैं जो कभी कभी अनहोनी को होनी और होनी को अनहोनी करने के साक्षात दर्शन करवाते हैं. 

कांति – कांति वह कला है जिससे चेहरे पर एक अलग नूर पैदा होता है, जिससे देखने मात्र से आप सुध-बुध खोकर उसके हो जाते हैं. 

विद्या – विद्या भी एक कला है, जिसके पास विद्या होती है उसमें अनेक गुण अपने आप आ जाते हैं. विद्या से संपन्न व्यक्ति वेदों का ज्ञाता, संगीत व कला का मर्मज्ञ, युद्ध कला में पारंगत, राजनीति व कूटनीति में माहिर होता है.

विमला – विमल यानि छल-कपट, भेदभाव से रहित निष्पक्ष जिसके मन में किसी भी प्रकार मैल ना हो कोई दोष न हो,

उत्कर्षिणि शक्ति – उत्कर्षिणि का अर्थ है प्रेरित करने क्षमता, जो लोगों को अकर्मण्यता से कर्मण्यता का संदेश दे सकें. जो लोगों को उनका लक्ष्य पाने के लिए प्रोत्साहित कर सके.

नीर-क्षीर विवेक – ऐसा ज्ञान रखने वाला व्यक्ति जो अपने ज्ञान से न्यायोचित फैसले लेता है. ऐसा व्यक्ति विवेकशील तो होता है.

कर्मण्यता – इस गुण वाला व्यक्ति सिर्फ उपदेश देने में ही नहीं बल्कि स्वयं भी कर्मठ होता है. इस तरह के व्यक्ति खाली दूसरों को कर्म करने का उपदेश नहीं देते बल्कि स्वयं भी कर्म के सिद्धांत पर ही चलते हैं.

योगशक्ति – योग भी एक कला है. योग का साधारण शब्दों में अर्थ है जोड़ना यहां पर इसका आध्यात्मिक अर्थ आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के लिये भी है. 

विनय – इसका अभिप्राय है विनयशीलता यानि जिसे अहं का भाव छूता भी न हो. शालीनता से व्यवहार करने वाला व्यक्ति इस कला में पारंगत हो सकता है.

सत्य धारणा – इस कला से संपन्न व्यक्तियों को सत्यवादी कहा जाता है. लोक कल्याण व सांस्कृतिक उत्थान के लिए ये कटु से कटु सत्य भी सबके सामने रखते हैं.

आधिपत्य – जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व ही ऐसा प्रभावशाली होता है कि लोग स्वयं उसका आधिपत्य स्वीकार कर लेते हैं. क्योंकि उन्हें उसके आधिपत्य में सरंक्षण का अहसास व सुरक्षा का विश्वास होता है.

अनुग्रह क्षमता – जिसमें अनुग्रह की क्षमता होती है वह हमेशा दूसरों के कल्याण में लगा रहता है, परोपकार के कार्यों को करता रहता है. उनके पास जो भी सहायता के लिये पंहुचता वह अपने सामर्थ्यानुसार उक्त व्यक्ति की सहायता भी करते हैं.

जिन लोगों में भी ये सभी कलाएं अथवा इस तरह के गुण होते हैं वे ईश्वर की तरह ही होते हैं. हालांकि, किसी इंसान में इन सभी गुणों का एक साथ मिलना असंभव है.

—- समाप्त —-