अगस्त 2021 में तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया. तब से ज्यादातर देशों ने अफगानिस्तान से कूटनीतिक संबंध खत्म कर दिए. यहां तक कि तालिबान के पास देश की आधिकारिक सरकार होने की मान्यता तक नहीं. भारत भी तालिबान की कट्टरता को लेकर उससे दूरी बना चुका. लेकिन हाल-हाल में रिश्ते में जमी बर्फ पिघलती लग रही है. कयास हैं कि जल्द ही तालिबान के फॉरेन मिनिस्टर आमिर खान मुत्तकी दिल्ली आ सकते हैं. ये वही मंत्री हैं, जिन पर यूएन ने दो दशकों तक यात्रा प्रतिबंध लगा रखा था.
मुत्तकी पर क्यों लगी थी पाबंदी
आमिर खान मुत्तकी अफगानिस्तान में तालिबान शासन के विदेश मंत्री हैं. वे तालिबान के पुराने नेताओं में से हैं और नब्बे के दशक में भी एजुकेशन मिनिस्टर रह चुके हैं. यूएनएससी यानी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने उन पर यात्रा प्रतिबंध लगाया था क्योंकि उसे शक था कि मुत्तकी नब्बे के दशक में हुई हिंसा में हिस्सेदार थे. ट्रैवल बैन इतना कड़ा था कि वे किसी भी देश की यात्रा नहीं कर सकते थे.
पाबंदी का मकसद साफ था, तालिबानी आतंक के तार वहीं तक सीमित रहें. हालांकि बीच-बीच में यूएन ने उन्हें कुछ छूट दी ताकि वे शांति की बातचीत में शामिल हो सकें. हाल में पश्चिम के माथे के बल कुछ नर्म पड़े हैं और वो तालिबान से रिश्ता बनाने को तैयार दिख रहा है. इसी कड़ी में उसने मुत्तकी पर से ट्रैवल बैन हटा दिया.
अब तक कैसे रहे भारत और तालिबान के रिश्ते
दोनों के रास्ते बार-बार टकराते तो रहे, लेकिन साथ चलना आसान नहीं रहा. नब्बे के दशक में जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया, तब भारत ने शुरू से ही इस शासन को मान्यता नहीं दी. तालिबान की कट्टर सोच और महिलाओं-बच्चियों पर पाबंदी ही वजह नहीं थी, बल्कि पाकिस्तान से उसका गहरा रिश्ता भी एक कारण रहा. अगर तालिबान को मान्यता मिल जाती तो दिल्ली तक उसका आना-जाना आसान हो जाता. इससे कश्मीर में आतंक को और हवा मिल सकती थी. इसी दौर में इंडियन एयरलाइन्स का एक प्लेन नेपाल से हाईजैक कर कंधार में उतारा गया. इसने रिश्तों को और बिगाड़ दिया.

तालिबान 2.0 में हो रहा बदलाव
दूसरी बार यानी अगस्त 2021 में जब तालिबान दोबारा सत्ता में आया तो भारत ने अपने सारे कूटनीतिक रिश्ते तोड़ दिए. हालांकि ये पहली बार की तरह खुला नहीं था, बल्कि रवैए में हल्की नरमी थी. काबुल में कुदरती आपदा आने पर दिल्ली से टीम भी गई ताकि मानवीय मदद दी जा सके. तालिबान को सरकार की मान्यता तो अब भी नहीं मिली, लेकिन वो पहले की तरह बिरादरी-बाहर भी नहीं दिख रहा.
मुत्तकी का भारत दौरा उस समय हो रहा है, जब दिल्ली के कमोबेश सारे पड़ोसी अस्थिर हैं. नेपाल ताजा-ताजा हिंसा झेल चुका. बांग्लादेश के जख्म भी पुराने नहीं. श्रीलंका और पाकिस्तान की राजनीति से लेकर इकनॉमी तक भरभराई हुई है. चीन हमेशा से वितंडा करने वाला पड़ोसी रहा. यहां तक कि तालिबान के आने के बाद से वो अफगानिस्तान में भी अपना सिक्का जमा रहा है. इसे कमजोर करना जरूरी है, भले ही मान्यता न दी जाए. यही वजह है कि भारत अब तालिबान से सीमित ही सही, लेकिन संबंध बना रहा है.
काबुल न बन जाए पाक आतंकियों का ब्रीडिंग ग्राउंड
पाकिस्तान से तनाव के बीच भारत के लिए अफगानिस्तान में पैठ और जरूरी हो जाती है. असल में काबुल को पाकिस्तान काफी समय तक भारत के खिलाफ एक्टिविटी के लिए इस्तेमाल करता रहा. इस बार मामला अलग है. तालिबानी शासन में इस्लामाबाद और काबुल के रिश्ते बिगड़े हैं. यानी लोहा गर्म है और यह दिल्ली के लिए अच्छा मौका साबित हो सकता है. काबुल के करीब आकर वो तय कर सकता है कि कम से कम उसकी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियां न हों.

तालिबानी शासन के लिए क्यों जरूरी है दिल्ली
तालिबान के लिए भारत से रिश्ता रखना इसलिए जरूरी है क्योंकि भारत सिर्फ मजबूत पड़ोसी ही नहीं, बल्कि क्षेत्रीय और वैश्विक मामलों में अफगानिस्तान का मददगार भी हो सकता है. सालों से अलगाव झेल रहे इस देश में तालिबान के आने के बाद से इंटरनेशनल मदद भी घटने लगी.
ऐसे में भारत न सिर्फ आर्थिक मदद दे सकता है, बल्कि बाकी देशों से रिश्ते सुधारने में भी ब्रिज बन सकता है. एशियाई देशों में भारत काफी कद्दावर देश है. उसका साथ पाने पर तालिबान की छवि सुधरेगी और मान्यता मिलने में आसानी हो सकेगी.
तालिबान अब तक पाकिस्तान के करीब रहा लेकिन ये दोस्ती तलवार की धार पर चलने जैसी रही. या आसान तरीके से समझें तो ये मित्रता शराबी के वादे की तरह रही. नशा उतरते ही वादा भी गायब. हाल में पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि तालिबान अपने मिलिटेंट समूहों को उसके यहां अस्थिरता लाने के लिए उकसा रहा है. इस आरोप के साथ उसने अफगानिस्तान की सीमा पर गोलाबारी भी शुरू कर दी. तुरंत ही तालिबानी लड़ाके भी हरकत में आए और जवाबी हमला किया. इसके बाद से दोनों की दोस्ती की बची-खुची डोर भी लगभग टूट गई.
क्या मान्यता संभव है
हाल-फिलहाल तो नहीं. दरअसल तालिबान 2.0 ने भले ही अपने उदार होने का दावा किया, लेकिन मामला अब भी परतदार है. अफगानिस्तान में उसके आने के बाद से महिलाओं के अधिकार घटते चले गए. यहां तक कि प्यूबर्टी की उम्र से लड़कियां
फॉर्मल स्कूल नहीं जा सकतीं. वे अकेले यात्रा नहीं कर सकतीं. यहां तक कि फीमेल अस्पताल जैसे स्ट्रक्चर भी कमजोर पड़ रहे हैं. मानवाधिकार हनन की स्थिति में भारत किसी भी हाल में उसे आधिकारिक दर्जा नहीं दे सकता. ये जरूर हो सकता है कि कूटनीतिक बातचीत के जरिए उसकी सख्ती को कुछ डायल्यूट किया जाए, और फिर तब इस दिशा में आगे बढ़ा जाए.
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