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मसान में फैल गई स्वरों की भस्म… अलविदा छन्नूलाल मिश्र – chhannulal mishra obituary tribute to Classical music legend ntc


दशहरे की सुबह का ब्रह्म मुहूर्त था. काशी विश्वनाथ मंदिर में मंगला आरती अब खत्म होने को थी. बाकी मंदिरों में कपाट खुलने लगे थे. स्वस्तिवाचन गूंजने लगा था. घंटियों, मंत्रों के साथ विजय दशमी की तिथि जागृत हो रही थी. इसी बेला में सांस अलबेली आखिरी बार प्राण से मिलती है. मिलकर फिर लौट जाती है. विदा के साथ. आती नहीं वापस. एक डोर जो 89 साल से काया को थामे थी, अब टूट गई थी. आकाश में सूर्य अपराजिता के फूलों जैसी रंगत रच रहा था. दशहरा नीलकंठ का दिन है. सारा आकाश उस टूटी सांस के लिए नीलकंठ होकर उसे अपने में आंगीकृत कर रहा था. पंडित छन्नूलाल मिश्र अब सदा के लिए सो चुके थे.

मोहनलाल मिश्र का जन्म हुआ आज़मगढ़ में. उनके पिता बद्री प्रसाद मिश्र तबला वादक थे. ये 1936 की 3 फरवरी थी. हरिहरपुर के मोहनलाल पिता के साथ आठ-नौ बरस की अवस्था में मुजफ्फरपुर आ गए. बिहार का ये नगर चतुर्भुज स्थान की तवायफों की वजह से भी जाना जाता था. यहां तवायफों के कोठे संगीत और कला के अड्डे भी थे. मोहनलाल यहीं संगीत सीखने लगे. किराना घराने के अब्दुल गनी खान मोहनलाल के पहले गुरू बने. गुरुमाता ने इसी मोहनलाल का नाम नजर-टोटका से बचाने के लिए रखा- छन्नू. और इस तरह मोहनलाल मिश्र को एक नई पहचान मिली. छन्नूलाल विश्वविख्यात हुए और यही नाम काशी के अमर पुत्रों की सूची में उन्हें हमेशा के लिए दर्ज कर गया. 

छन्नूलाल जी की ट्रेनिंग शास्त्रीय की थी. बनारस के ठाकुर जयदेव सिंह उनको शास्त्रीयता से सींचने वाले गुरु थे. किराना और बनारसी का जो आखेट छन्नूलाल जी के गायन में मिलता है, उसे उनमें रोपने का काम जयदेव सिंह ने ही किया. लेकिन छन्नूलाल मिश्र ने सीखे को लकीर नहीं बनाया. उन्होंने शास्त्रीयता से परिपक्वता हासिल की और फिर उस तराश को अपने संगीत में उतारा. उन्होंने संगीत में ध्रुपद, खयाल और ठुमरी नहीं, चैती, सोहर, कजरी, बिरहा, बहार, बधइया, भजन को अपना माध्यम बनाया. इसकी वजह से एक बड़ा बदलाव हुआ. छन्नूलाल संभ्रांत और सीमित कुलीनों के संकुल से निकलकर लोक संगीत की विशाल गंगा में तैरने लगे. रागों के अंजन से सजी-चमकती चैती और कजरी जब छन्नूलाल जी के स्वरमंडल के तारों से जागकर उनके मुख से फूटती, तो पद्य के पात्र जीवित हो उठते. शास्त्रीयता नींव की तरह लोक संगीत की ईमारत को साधे रहती और मंज़िल दर मंज़िल छन्नूलाल जी और बुलंद होते जाते.

दिल्ली में एकबार सोहर पर बात करते हुए उन्होंने मुझसे कहा था कि सप्तसुरों की शुरुआत स से होती है और अंत में स पर ही आना होता है. इसमें पहला स है सोहर का. ऐसा इसलिए क्योंकि धरती पर पहला गीत किसी मां ने अपने बच्चे के लिए ही गाया होगा. संगीत और सुरों की शुरुआत सोहर से ही हुई होगी. चाहे वो किसी भाषा या देश में हुई हो. बाकी के स्वर लोकगीत, सुगम और सेमी क्लासिकल के हैं. आखिरी स का स्थायी ही शास्त्रीय है. मेरे लिए तो पहला स और उसका लोक बहुत अहम है क्योंकि उसमें ममता है, आंचलिकता है, अपनापन है.

छन्नूलाल मिश्र का गायन इसीलिए लोक परंपराओं को समर्पित रहा. उन्होंने लोक परंपरा के गीतों को शास्त्रीयता की कसावट से संवारा और फिर लोगों के बीच ले गए. लोगों ने इसे हाथोंहाथ लिया. सोहर, चैती, कजरी, बधाई में उनका कोई जवाब नहीं. इनमें उत्सव खोजने वाले एक बहुमत समाज के लिए धर्म और धार्मिक परंपराएं भी जीवन का अहम हिस्सा हैं. ये भी छन्नूलाल मिश्र के संगीत का ऐसा हिस्सा है जिसके बिना उनकी बात पूरी नहीं हो सकती. निर्गुण भजन, कबीर, तुलसी, शिव विवाह, राम चरित मानस और कृष्ण पर तो उनके इतने मनोहारी गीत हैं कि दूसरा कोई उन भजनों के मयार का नहीं मिलता.

छन्नूलाल मिश्र की गोपिकाएं जब दही की मटकी लेकर छंदों से निकलती हैं तो साक्षात सामने दिखती हैं. शास्त्रीयता और भाव के सम्मिलित प्रभाव में देसी खरद के गीत एकदम जीवंत हो उठते हैं. पात्र आपको अपने आसपास महसूस होने लगते हैं. पालने में किलकारते राम, बंसी बजाते कृष्ण, विवाह को निकले शिव… कौन सा रूप मोहक नहीं है छन्नूलाल मिश्र के गायन में.

दिल्ली और देश के कितने ही कोनों में उनके असंख्य कार्यक्रम रहे. मैंने दिल्ली के सबसे महंगे इलाकों के घरों में उनको रुकते ठहरते भी देखा. लेकिन देसजपन उनकी देह से चिपटा ही रहा. पद्म भूषण की घोषणा होने के तुरंत बाद मैंने बीबीसी के लिए उन्हें फोन किया. अभिवादन के बाद मैंने उन्हें बताया कि लिस्ट आ गई है और आपको पद्म पुरस्कार दिया जा रहा है. उधर से आवाज़ आई- बच्चा, अबै तरकारी लइके रेक्सा से घरे जा रहेन, पहुंच जाई तब फोन करौ. बचपन की गरीबी और काशी की फकीरी उनके अंदर ऐसे ही स्थापित रही और वो मोह के दायरों में भी मूल से भटके नहीं. मौज लेते, मज़ाक करते और चुटकी लेते. कुल मिलाकर बनारसी बने रहते थे.

बनारस घराने ने उन्हें वैसे अपनाया नहीं जैसा वो चाहते थे. हमेशा एक अनकही दूरी बनी रही. बनारस के अपने समकालीनों के बीच वो पहचान की व्याकुलता मन में रखे रहते थे. इसका कारण बनारसी न होने से ज्यादा समकालीनों के बीच आपसी कॉम्पटीशन भी था. ऐसा ही अनुभव बिस्मिल्ला खां का भी रहा. भारत रत्न के बाद बहुत से बनारसी कला रत्नों ने अपना मुंह बिचकाया था और चुटकी लेने, ताना देने से चूके नहीं थे. लेकिन छन्नूलाल मिश्र का अपना एक विशाल श्रोता समाज है जो इस प्रतियोगिता और प्रतिद्वंद्विता को नहीं मानता. उसके लिए उनका गायक और उसका गायन ही श्रेष्ठ है. और इसी समकालीनों की पीढ़ी में जब बिस्मिल्ला खां, किशन महाराज, गिरिजा देवी जैसे काशी के नाम एक एक कर मुक्ति पाते गए, छन्नूलाल इस पीढ़ी और परंपरा की आखिरी बाती की तरह लहराती ज्योति से दिखते थे. अफसोस कि ये दिया भी अब बुझ चुका है. बाकी है एक शून्यता… बनारस की परंपरा के दरीचों में खाली मंच की तरह मुंह खोले हुए.

छन्नूलाल जी ने सिनेमा वालों के लिए भी गीत गाए. सांस अलबेली में उनकी कसावट अद्भुत है. लेकिन कालजयी तो होली ही है. मसान की होली. खेलैं मसाने में होली दिगंबर, खेलैं मसाने में होली… उनका ऐसा गीत है जिसके बिना बनारस की कोई होली अब पूरी नहीं होती. ये गीत छन्नूलाल मिश्र का सिग्नेचर गीत बन गया है. और यह अद्भुत है कि जिस मसान में शिव के होली खेलने का वर्णन उन्होंने इस गीत में किया है, उसी मसान में उन्होंने अपनी आखिरी सेज सजाई. पंडित जी शिव के उसी मसान में भस्म बने. अब शिव ने इस भस्म को इसी मसान में बिखेर दिया है. गंगा इसे सींचती रहेगी, काशी विश्वनाथ के मंदिर के घंटों से टकराकर आई हवाएं इसे फिर सुखाती उड़ाती रहेगी. शिव की झोली में आ सिमटे हैं छन्नूलाल. इससे अधिक दिव्यता और क्या हो सकती है.

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