दुनिया भर में खुदकुशी का ग्राफ ऊपर जा रहा है. इसमें भी महिलाओं की तुलना में पुरुषों के आत्महत्या की दर ज्यादा रहती है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) ने हाल में क्राइम पर एक डेटा जारी किया. इसमें आत्महत्या में यही पैटर्न दिखा. दो साल पहले 30 से 45 साल की उम्र के 43 हजार पुरुषों और 12 हजार महिलाओं ने आत्महत्या की है. ये हैरान करने वाला इसलिए है क्योंकि महिलाओं में डिप्रेशन की दर और आत्महत्या की प्रवृति भी ज्यादा दिखती है.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (WHO) की मानें तो हर साल सात लाख से ज्यादा लोग खुदकुशी कर लेते हैं. इसमें भी पुरुषों के ऐसा कदम उठाने का प्रतिशत महिलाओं से काफी ज्यादा रहा. अमेरिका को ही देखें तो वहां मेल सुसाइड, महिलाओं की तुलना में चार गुना से भी ज्यादा रहा. ऑस्ट्रेलि्या में तिगुनी, जबकि ज्यादातर देशों में ये दर दोगुनी है. भारत में भी यही दिखता है.
इस डेटा पर लंबे समय से बहस होती रही. डिप्रेशन और कई किस्म के सामाजिक-आर्थिक भेदभाव झेलती महिलाओं की तुलना में पुरुषों में आत्महत्या की दर ज्यादा क्यों!

दुनियाभर में महिलाओं में डिप्रेशन के केस पुरुषों से ज्यादा दिखते हैं. WHO के अनुसार, ग्लोबली महिलाओं में डिप्रेशन की आशंका पुरुषों से करीब डेढ़ से दोगुना होती है. हालिया आंकड़ों के हिसाब से वैश्विक स्तर पर अगर 10 महिलाओं को लें, तो उनमें से 1 महिला किसी न किसी रूप में डिप्रेशन का सामना कर रही है.
इसके कई कारण हैं. जैसे हार्मोनल बदलाव, सोशल प्रेशर, और घर-बाहर संभालने की जिम्मेदारी. दुनिया के कई देश ऐसे हैं, जहां महिलाओं को बाहर निकलने तक की आजादी नहीं. उनके लिए हेल्थकेयर सिस्टम भी नहीं है. ये सब वजहें घुल-मिलकर अवसाद की वजह बन जाती हैं. साल 2021 में WHO ने माना था कि ग्लोबली 51 करोड़ पुरुषों की तुलना में 58 करोड़ से ज्यादा स्त्रियां अवसाद में हैं.
भारत में भी यही ट्रेंड है. नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे के मुताबिक, भारत में ज्यादातर डिप्रेशन पेशेंट महिलाएं होती हैं. कई बार वे परिवार और समाज की वजह से खुलकर अपनी परेशानी नहीं बता पातीं, इसलिए केस दबे रह जाते हैं. एक अच्छी बात ये है कि महिलाएं मानसिक समस्या के लिए मदद लेने में पुरुषों से कुछ आगे रहती हैं, जिससे डेटा में उनके केस ज्यादा दर्ज भी होते हैं.
अवसादग्रस्त महिलाएं खुदकुशी की कोशिश में भी आगे हैं, लेकिन इससे होने वाली मौतों में पुरुष आगे दिखते हैं. ये फर्क सुसाइड अटेम्प्ट और सुसाइड डेथ का है.
पुरुष ज्यादा घातक तरीके अपनाते हैं. इसमें भी आत्महत्या के साधनों तक पहुंच होना एक वजह रही. अमेरिका को ही लें तो सबसे ज्यादा फायरआर्म्स पुरुषों के पास हैं. वहां आधे से ज्यादा आत्महत्या गोली मारकर होती है. इसलिए उनकी कोशिश अक्सर तुरंत ही मौत में बदल जाती है. दूसरी तरफ, महिलाएं दवाओं का ओवरडोज लेने जैसी कोशिश करती हैं, जिसमें सही वक्त पर मदद मिलना जान बचा सकता है.

समाज की बनावट ऐसी है कि पुरुष भावनाओं को जताने में पीछे रहते हैं. ऐसे में नकारात्मक इमोशन्स के एक्सट्रीम पर पहुंच जाने पर वे कदम लेते हैं, जो आखिरी होता है. पुरुष महिलाओं की तुलना में मदद लेने में झिझकते हैं, इसलिए कई बार एक्सट्रीम पर पहुंचने पर ही पता लग पाता है कि फलां शख्स लंबे समय से अवसाद में था. नशे जैसी आदतें डिप्रेशन को ट्रिगर करती हैं.
मेल सुसाइड को गंभीरता से लेते हुए कई देशों ने इसपर काम किया. वे आत्महत्या की सोच पर कॉमन काउंसलिंग की बजाए कई तरीके अपनाने लगे. जैसे, ऑस्ट्रेलिया ने मेन्ज शेड नाम से कम्युनिटी बनाई. यह एक ऐसा स्पेस हैं, जहां पुरुष खुलकर बातें कर सकें और सलाह दे सकें. इसमें आम पुरुषों के साथ एक्सपर्ट भी पुरुष ही होते हैं, जो काउंसलिंग के साथ इलाज भी सुझा सकते हैं.
स्वीडन जैसे देश इसमें एक कदम आगे निकल गए. वहां सरकार और एनजीओ दोनों ने ही हेल्पलाइन में पुरुषों के लिए अलग स्क्रिप्ट तैयार की और अगर कोई शख्स डिप्रेशन में लगा तो उसे डील करने के लिए ट्रेनिंग भी महिलाओं या बच्चों से अलग होती है. इन देशों में रीयल मेन टॉक जैसे कैंपेन चल रहे हैं जो जोर देते हैं कि पुरुषों को सब कुछ मन में नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुलकर बोलने से कई चीजें आसान हो जाती हैं.
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