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विश्व मंच पर बदलते समीकरण… ग्लोबल साउथ के साथ फिर पूरी शिद्दत से जुड़ रहा भारत – india global south strategy united nations ntc


यूनाइटेड नेशंस में कोई भी यूनाइटेड नहीं दिखा, क्योंकि वार्षिक महासभा के सत्र के दौरान नेता शांति के अभाव काल में अपनी बात कहने और विश्वव्यापी अभाव के समय में सहायता पाने के लिए जमा हुए थे.

यह हफ्ता अनिश्चितता से त्रस्त और बेकार दुनिया का प्रतीक रहा, जहां दोस्त, दुश्मन में बदल गए हैं और दुश्मन, भले ही थोड़े समय के लिए ही सही बढ़ रहे हैं. साफ जवाबों के अभाव में, भारत समेत कई देश नए साझेदार खोजने और पुराने साझेदारों को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश कर रहे हैं, साथ ही जियो-पॉलिटिकल उथल-पुथल से भी निपट रहे हैं.

साउथ-साउथ कॉपरेशन एक बार फिर जोर पकड़ रहा है, क्योंकि अमेरिका के साथ नई दिल्ली अपने संबंधों में कई संकटों से निपटने की कोशिश कर रहा है, जिसमें अमेरिका फर्स्ट के मुखर समर्थकों की ओर से जुबानी हमले भी शामिल हैं.

पिछले हफ़्ते न्यूयॉर्क में हुई सभा में कोहराम मचा हुआ था- जैसे ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों पर हमला करने और उन्हें अपमानित करने पहुंचे, एस्केलेटर भी मानो हार मान गए. एक ऐसे व्यक्ति ने, जो व्यवधान और हुक्म चलाने में यकीन रखता है, मौजूद लोगों से कहा कि अनियंत्रित इमिग्रेशन की वजह से उनके देश नरक में जा रहे हैं. उन देशों को अमेरिका की मिसाल का पालन करना होगा, वरना उन्हें हमेशा के लिए खुली सीमाओं के असफल प्रयोग का शिकार बनकर रहना होगा. उन्होंने सभी तथ्यों का उल्लंघन करते हुए भारत को यूक्रेन युद्ध का ‘फंडर’ यानी फंड देने वाला तक कहा.

पिछले चार महीनों में भारत-अमेरिका संबंधों में आई गिरावट और अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों में भी उतनी ही तेजी से आई गर्मजोशी, ने नई दिल्ली को भारी नुकसान पहुंचाया है. हालांकि उसने वॉशिंगटन के साथ कोई प्रतिक्रिया दिए बिना इन झटकों और अपमानों को सहन कर लिया है.

टैरिफ और तेल खरीद पर दबाव के बीच, भारत और अधिक विविधता लाने, ग्लोबल साउथ के देशों के साथ फिर से जोश से जुड़ने और यूरोपीय संघ के साथ व्यापार वार्ता को तेज़ करने की कोशिश कर रहा है. कूटनीति की गति तेज़ हो गई है.

लेकिन रास्ता अनिश्चित और गड्ढों से भरा है. जियो-पॉलिटिकल तनावों, दो जारी युद्धों और अनिश्चितता के घने बादलों के जटिल अंतर्विरोधों ने फलक को अंधकारमय बना दिया है. दोहरे मानदंड आम बात हो गए हैं, जहां सस्ता रूसी तेल खरीदना कुछ लोगों के लिए पाप है, लेकिन कुछ के लिए नहीं.

चिंता का स्तर बहुत ऊंचा है क्योंकि नेता दंडात्मक अमेरिका और दमनकारी चीन के बीच फंसने से बचने की कोशिश कर रहे हैं. विकल्प कम ही बचे हैं. अमेरिकी बाज़ार की जगह लेना आसान नहीं है और सप्लाई चैन, महत्वपूर्ण खनिजों और भारी उपकरणों पर चीन के नियंत्रण के कारण बीजिंग को दरकिनार करना मुश्किल है.

ट्रंप के टैरिफ वॉर के बाद, ज़्यादातर देश निर्यात के लिए किसी एक देश पर निर्भर नहीं रहना चाहते. इसके पीछे मकसद है कि वैकल्पिक बाज़ार तलाशने के लिए कड़ी मेहनत की जाए, भले ही वे छोटे और ज़्यादा मुश्किल क्यों न हों.

विदेश मंत्री एस. जयशंकर का ग्लोबल साउथ और यूरोपीय संघ के देशों तक पहुंचना भारत की भागीदारी के स्तर को बढ़ाने का एक प्रयास था. उन्होंने 40 से ज़्यादा विदेश मंत्रियों से द्विपक्षीय और बहुपक्षीय समूहों में मुलाक़ात की, ताकि आपसी समझ को मज़बूत किया जा सके.

उन्होंने वैक्सीन, डिजिटल क्षमताओं, शिक्षा क्षमता और लघु एवं मध्यम उद्यम संस्कृति को उन कुछ चीज़ों के रूप में लिस्ट किया जिन्हें भारत साउथ कॉपरेशन को मज़बूत करने के लिए पेश कर रहा है. उन्होंने ब्रिक्स देशों से संरक्षणवाद के बढ़ने के साथ बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली की रक्षा करने का आह्वान किया.

जयशंकर ने अपने अमेरिकी समकक्ष मार्को रुबियो से भी मुलाकात की, लेकिन यह मुलाकात ट्रंप की तरफ से H-1B वीज़ा पर अगले साल से 1,00,000 डॉलर की फीस लगाने के ऐलान के दो दिन बाद हुई. अमेरिका में एंट्री को प्रतिबंधित करने के मकसद से उठाया गया यह कदम भारत पर लगाए गए 50 प्रतिशत टैरिफ के अलावा एक और दुश्मनी से भरा कदम था.

अगर भारत को अमेरिका की कड़ी फटकार का सामना करना पड़ता है, तो पाकिस्तान को रियायतें मिलती दिख रही हैं. पाकिस्तान-सऊदी अरब के बीच हुए रणनीतिक सैन्य समझौते से उत्साहित प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़, इज़रायल-गाज़ा युद्ध और क्षेत्रीय सुरक्षा पर चर्चा के लिए मुस्लिम नेताओं के साथ ट्रंप की बैठक में शामिल हुए.

शरीफ और सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर भी व्हाइट हाउस गए. साल 2019 में इमरान खान के पहले ट्रंप प्रशासन के दौरान आने के बाद छह साल में किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यह पहली यात्रा थी. दिलचस्प बात यह है कि पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन के पास न तो पाकिस्तानी नेताओं से बात करने का समय था और न ही बातचीत करने की इच्छा. उन्होंने भारत के साथ मज़बूत संबंध बनाने और क्वाड को मज़बूत करने पर ध्यान केंद्रित किया.

ट्रंप इसके उलट कर रहे हैं. भारत को सज़ा और पाकिस्तान को इनाम. तीन महीने पहले, उन्होंने मुनीर को व्हाइट हाउस में एक शानदार लंच दिया था. अमेरिकी अधिकारियों का मानना है कि यह नोबेल प्राइज नॉमिनेशन के लिए आभार था और पिछले हफ़्ते उन्हें फिर से आमंत्रित किया. चालाक सेना प्रमुख और पाकिस्तान के वास्तविक शासक, अहम रेयर अर्थ मिनरल्स के नमूनों से भरा एक ब्रीफकेस लेकर आए थे, जिनका खनन करके ट्रंप के सहयोगी उनसे मुनाफ़ा कमाना चाहते हैं.

पाकिस्तान साफ तौर पर अमेरिका के साथ जुड़ाव और उपेक्षा के चक्र के तहत फिर से अमेरिका के पक्ष में आ गया है और कोई नहीं जानता कि यह दौर कब तक चलेगा. लेकिन यह भारत के रणनीतिक दृष्टिकोण को जटिल बनाता है, खासकर सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान के सैन्य समझौते के संदर्भ में.

यह समझौता संभवतः ट्रंप के आशीर्वाद से किया गया था, क्योंकि कतर में रहने वाले हमास नेताओं पर इजरायल के हमले के मद्देनजर अरब विशेषज्ञों ने अमेरिकी सुरक्षा गारंटी के महत्व पर खुले तौर पर सवाल उठाया था.

सऊदी अरब मूल रूप से अमेरिका के साथ एक पारस्परिक रक्षा समझौता चाहता था, और बाइडेन प्रशासन के दौरान इस पर गंभीर चर्चा भी हुई. अंतिम लक्ष्य इज़रायल के साथ संबंधों को सामान्य बनाना था, लेकिन गाजा युद्ध के बाद ये योजना स्थगित कर दी गई.

यह कहने की जरूरत नहीं है कि पाकिस्तान के लिए सऊदी अरब की उदारता, जो दशकों पुरानी और हमेशा से मौजूद रही है, अब भारतीय सुरक्षा पर सीधे तौर पर प्रभाव डाल सकती है, क्योंकि रावलपिंडी नए हथियारों की खरीदारी में जुट गया है. इसमें कोई शक नहीं कि नई दिल्ली इस अनिश्चित समय के लिए खुद को फिर से तैयार कर लेगी.

(सीमा सिरोही वॉशिंगटन डीसी में कार्यरत एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह विदेश नीति पर लिखती हैं और लगभग तीन दशकों से भारत-अमेरिका संबंधों को कवर कर रही हैं)

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