हाल के भू-राजनीतिक घटनाक्रमों से संकेत मिलता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एशिया में चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए ट्रंप ने पाकिस्तान, तुर्की और सऊदी अरब जैसे देशों का सहारा लिया है. ये देश लंबे समय से चीन के रणनीतिक साझेदार रहे हैं, खासकर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और अन्य आर्थिक-रक्षा सहयोग के माध्यम से.
ट्रंप की नई नीति में इन देशों के पक्ष में दिखती है. ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जब ट्रंप की नीति अचानक से पाकिस्तान के पक्ष में जाती दिखी तो कई सुरक्षा विश्लेषक चौक गए. लेकिन इसके पीछे ट्रंप सरकार की सोची समझी रणनीति थी.
ट्रंप ने पाकिस्तान के साथ 50 करोड़ डॉलर का खनिज निवेश समझौता किया है, जिसका लक्ष्य $6 ट्रिलियन की खनिज संपदा का दोहन है.
ट्रंप ने टैरिफ वॉर में पाकिस्तान को विशेष तरजीह दी और सामानों पर टैरिफ 29% से घटाकर 19% कर दिया.
यह कदम पाकिस्तान को चीन के साथ गहरे संबंधों से हटाकर अमेरिका के प्रभाव क्षेत्र में लाने की कोशिश है, खासकर जब पाकिस्तान चीन के BRI प्रोजेक्ट्स में शामिल है.
पाकिस्तान-सऊदी अरब का पैक्ट
पाकिस्तान और सऊदी अरब को पालतू बनाने का अमेरिका का अगला कदम पाकिस्तान और सऊदी अरब का हालिया द्विपक्षीय रक्षा समझौता है.
इसके तहत दोनों देशों ने तय किया है कि एक देश पर हमला दूसरे देश पर हमला माना जाएगा. इसे “इस्लामिक नाटो” के रूप में देखा जा रहा है, जो एक बड़े अरब-इस्लामी रक्षा गठबंधन की दिशा में पहला कदम हो सकता है.
सऊदी अरब अमेरिका का नजदीकी सहयोगी है और उसे तमाम तरह की सुरक्षा प्रदान करता है. बिना अमेरिका के ग्रीन सिग्नल के पाकिस्तान और सऊदी अरब का किसी ऐसे रक्षा समझौते को अंजाम देना संभव नहीं था.
खाड़ी और एशिया में इन समझौतों को फलने-फूलने का मौका देकर अमेरिका ने दोनों ही देशों को मैसेज दिया है कि उन्हें चीन के पाले में जाने की जरूरत नहीं है और अमेरिका उनकी रक्षा जरूरतों का पूरा ख्याल रखेगा.
पाकिस्तान और सऊदी अरब दो ऐसे देश हैं जिन्हें अमेरिका अपनी भू-राजनीतिक जरूरतों को देखते हुए हमेशा से अपने पाले में रखना चाहता है.
डिफेंस एक्सपर्ट और वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण स्वामी ‘द प्रिंट’में लिखते हैं, “1944 में राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने एक ब्रिटिश राजनयिक से कहा था, “फ़ारसी तेल आपका है. हम इराक और कुवैत के तेल को बांट लेंगे. जहां तक सऊदी अरब के तेल की बात है, वह हमारा है.”
राष्ट्रपति रूजवेल्ट का ये कथन बताता है कि सऊदी अमेरिका को लेकर अमेरिका का आग्रह क्या है. यही वजह है कि अमेरिका किसी भी हालत में सऊदी अरब को अपने हाथ से फिसलना नहीं देना चाहते हैं और उन्होंने सऊदी अरब को पाकिस्तान के साथ डिफेंस पैक्ट की इजाजत दी है. अमेरिका ने इस कदम को उठाकर चीन को भी संदेश देने की कोशिश की है.
इस्लामिक देशों से ट्रंप की मुलाकात
इजरायल से मार खाए कतर का उदाहरण देखकर खाड़ी देशों का विश्वास हिला हुआ है. पिछले कुछ महीनों में कतर पर पहले ईरान ने हमला किया उसके बाद इजरायल ने दोहा में मिसाइल बरसाए. अमेरिकी सुरक्षा के भरोसे रहने वाले खाड़ी के देश हतप्रभ हैं कि इस दौरान अमेरिका ने उनकी कोई मदद नहीं की.
अब ट्रंप ने इन देशों का विश्वास जीतने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान पाकिस्तान, सऊदी अरब, तुर्की, कतर, और अन्य मुस्लिम देशों के नेताओं के साथ बहुपक्षीय बैठक भी की है. इस बैठक में गाजा हमले का भी मुद्दा उठा. ट्रंप ने कहा कि ये लड़ाई काफी लंबी चल गई है. उन्होंने कहा कि ये मुस्लिम देश अब बंधकों को वापस करने की रणनीति पर विचार कर रहे हैं.
ट्रंप की इन कोशिशों का उद्देश्य संयुक्त सुरक्षा के साथ-साथ चीन जैसी महाशक्ति की प्रभावशाली नीतियों को संतुलित करना है. हालांकि, अमेरिका और कुछ खाड़ी देशों के बीच इजरायल को लेकर उठे विवादों ने क्षेत्रीय राजनीति को जटिल बना दिया है.
तुर्की की भूमिका
तुर्की नाटो का सदस्य है. इसलिए अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा परिदृश्य में उसकी बड़ी भूमिका है. नाटो मेंबर होने के नाते वह अमेरिकी नीतियों से ज्यादा दूरी नहीं बना सकता है. हालांकि तुर्की की हमास समर्थन की नीति और इजरायल विरोधी रुख इस देश को अमेरिका के लिए एक जटिल केस बना देता है.
फिर भी तुर्की की सीरिया में प्रभावशाली भूमिका और क्षेत्रीय रणनीति इसे महत्वपूर्ण बनाती है. अमेरिका, सऊदी-पाकिस्तान डिफेंस पैक्ट और तुर्की के साथ सहयोग से खाड़ी क्षेत्र में अपन सैन्य उपस्थिति को कम करते हुए स्थानीय शक्तियों को मजबूत करने की कोशिश कर रहा है, जो रूस
के प्रभाव को संतुलित करता है.
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