हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी को बचाने के लिए विशेषज्ञों और पर्यावरण समूहों ने एक व्यापक ‘हिमालय नीति’ की मांग की है. उत्तराखंड जल बिरादरी द्वारा डूब लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर में आयोजित एक दिवसीय बैठक में ‘हिमालय आपदा – गंगा-यमुना का विकास या विनाश’ पर चर्चा हुई.
विशेषज्ञों ने यमुनोत्री और गंगोत्री नेशनल हाईवे पर सड़क चौड़ीकरण परियोजनाओं को लेकर चिंता जताई. उन्होंने कहा कि इन परियोजनाओं से मलबा यमुना और भागीरथी नदियों में न डाला जाए. सड़क की चौड़ाई 5 मीटर से ज्यादा न हो. इसके बजाय, नामित डंपिंग जोन बनाए जाएं और वहां वृक्षारोपण हो, ताकि पारिस्थितिकी संतुलन बना रहे.
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सड़क चौड़ीकरण से हो रही तबाही
पर्यावरणविदों ने गंगोत्री हाईवे पर देवदार और अन्य पेड़ों की बड़े पैमाने पर कटाई पर चिंता जताई. उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक अध्ययनों की सिफारिशें, जैसे हरे कवर बेल्ट की रक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. पर्यावरणविद सुरेश भाई ने कहा कि आज की आपदाएं मानव-निर्मित हैं. सड़क चौड़ीकरण और बांध निर्माण मुख्य कारण हैं. हिमालय को 6 मीटर चौड़ी सड़कों की जरूरत नहीं. उत्तराखंड और हिमाचल में सड़क विस्तार और बांध बनाने के दौर से ये इलाके आपदा हॉटस्पॉट बन गए हैं.
नदियों का संरक्षण और लोगों की आजीविका
बैठक में गंगा और यमुना के उद्गम के पास रहने वाले छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका पर भी चर्चा हुई. विशेषज्ञों ने जलवायु-प्रतिरोधी आजीविका कार्यक्रमों की मांग की, जो किसानों को बचाएं और हिमालयी पारिस्थितिकी के अनुकूल हों.
गौमुख और बांदर पूंछ ग्लेशियरों की तेजी से बदलती स्थिति पर चिंता जताते हुए, राज्य, केंद्र और स्थानीय समुदायों से संयुक्त प्रयासों की अपील की गई. उन्होंने कहा कि इन ग्लेशियरों के आसपास जैव विविधता—पेड़, जड़ी-बूटियां, वन्यजीव और जल धाराओं—का संरक्षण हिमालयी पर्यावरण को बनाए रखने के लिए जरूरी है.
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राजेंद्र सिंह की चेतावनी: विकास मॉडल बदलें
रामोन मैगसेसे पुरस्कार विजेता और ‘भारत के वाटरमैन’ राजेंद्र सिंह ने कहा कि लापरवाह विकास मॉडल ने नदियों को विनाश का हथियार बना दिया है. उन्होंने भाखड़ा नांगल और अन्य बांधों से जून में ही पानी छोड़ने का उदाहरण दिया, जिससे मॉनसून में पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के बड़े इलाके डूब गए.
सिंह ने कहा कि यह असली विकास नहीं, सिर्फ लॉलीपॉप है. हमें 1980 के दशक में अरावलियों में जल संचयन जैसे लोगों के नेतृत्व वाले संरक्षण आंदोलनों को पुनर्जीवित करना चाहिए. सरकार अकेले जंगलों और नदियों को नहीं बचा सकती. लोगों की भागीदारी से ही प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा हो सकती है और आपदाओं से बचाव संभव है.
निर्माण और आपदा जोखिम
नदियों के उद्गम से 150 किमी के दायरे में अनियंत्रित निर्माण पर चिंता जताई गई. विशेषज्ञों ने कहा कि यह इलाका बाढ़, भूकंप और भूस्खलन के उच्च जोखिम वाला है. बड़े प्रोजेक्ट्स के बजाय छोटे लेकिन महत्वपूर्ण कार्य जैसे मजबूत स्थानीय सड़कें, जल स्रोत संरक्षण, वनरोपण और जल स्वच्छता को प्राथमिकता दें.
इससे स्थानीय युवाओं और महिलाओं को रोजगार भी मिलेगा. पद्मश्री कल्यान सिंह रावत ने चेतावनी दी कि हिमालय के ‘वाटर टावर्स’ संकट में हैं. ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. चौड़े पत्ते वाले जंगल चीड के पाइन से बदल रहे हैं. उन्होंने कहा कि बिना पारिस्थितिकी योजना के बड़े वृक्षारोपण अभियान नुकसान ही पहुंचा रहे हैं. पर्यावरणविद प्रो. वीरेंद्र पन्यूली ने यमुना जल प्रबंधन नीतियों पर सवाल उठाए.
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पर्यटन और कचरा समस्या
पर्यटन पर भी कड़ी आलोचना हुई. तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की अनियंत्रित संख्या से गंगा-यमुना बेसिन में प्लास्टिक और कचरा डंप हो रहा है. कार्यकर्ताओं ने सख्त कचरा प्रबंधन की मांग की, ताकि प्लास्टिक और अनुपचारित सीवेज नदियों में न जाए. भूवैज्ञानिक प्रो. एसपी सती ने कहा कि अवैज्ञानिक सड़क निर्माण और अनियमित वर्षा पहाड़ों को अस्थिर कर रही है.
इतिहासकार डॉ. योगेश धस्माना ने हिमालयी स्थलों की क्षमता पर आधारित नीति की जरूरत बताई. वरिष्ठ पत्रकार विजेंद्र सिंह रावत ने स्थानीय युवाओं को ‘हिमालय गार्ड’ के रूप में प्रशिक्षित करने का सुझाव दिया, ताकि पारिस्थितिकी की रक्षा और आपदाओं का प्रबंधन हो सके.
हिमालय नीति की मांग
हिमालय के लिए अलग विकास मॉडल की जरूरत पर जोर दिया गया. विशेषज्ञों ने कहा कि मैदानी इलाकों के विकास मानक पहाड़ों पर लागू नहीं हो सकते. एक व्यापक ‘हिमालय नीति’ बननी चाहिए, जो पारिस्थितिकी और सामाजिक जरूरतों के अनुकूल हो.
तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या को सीमित करने और यात्रा से पहले प्रशिक्षण देने की सिफारिश की गई. इससे पर्यटक हिमालयी पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होंगे और कचरा-पारिस्थितिकी क्षति कम होगी. तीर्थ मार्गों में परिवहन सुधार का सुझाव दिया गया. तीर्थयात्रियों को निजी कारों के बजाय सरकारी वाहनों का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करें. इससे वाहनों की भीड़ कम होगी और ब्लैक कार्बन उत्सर्जन घटेगा, जो ग्लेशियरों के लिए बड़ा खतरा है.
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बैठक में उठाए गए मुख्य मुद्दे
- भविष्य में यमुनोत्री और गंगोत्री हाईवे पर सड़क चौड़ीकरण में मलबा यमुना-भागीरथी में न डाला जाए. नामित डंपिंग जोन बनाएं और वहां वृक्षारोपण करें.
- गंगोत्री हाईवे पर देवदार आदि पेड़ों की कटाई रोकने के लिए वैज्ञानिक अध्ययनों की सिफारिशें लागू करें.
- यमुना-गंगा उद्गम के पास छोटे किसानों के लिए जलवायु-प्रतिरोधी आजीविका कार्यक्रम शुरू करें.
- गौमुख और बांदर पूंछ ग्लेशियरों की बदलती स्थिति को देखते हुए राज्य-केंद्र-समुदाय मिलकर जैव विविधता संरक्षित करें.
- गंगा-यमुना उद्गम से 150 किमी में बड़े निर्माण न हों. छोटे कार्य जैसे सड़कें, जल संरक्षण, वनरोपण और स्वच्छता पर जोर दें, जो रोजगार दें.
- गंगा-यमुना बेसिन में पर्यटकों से प्लास्टिक-कचरा रोकने के लिए सख्त प्रबंधन. सीवेज नदियों में न जाए.
- हिमालय के लिए अलग विकास मॉडल—व्यापक ‘हिमालय नीति’.
- तीर्थयात्रियों की संख्या सीमित करें और यात्रा पूर्व प्रशिक्षण दें.
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