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धन का क्या है महत्व… वेद-पुराणों समेत आचार्य चाणक्य ने भी बताया है जरूरी – diwali dhan importance vedic traditions wealth prosperity ntcpvp


दीपावली की जगमग चारों ओर है. धनतेरस से इस दीप पर्व की शुरुआत हो चुकी है. फिर रूप चतुर्दशी और अब दीपोत्सव का मुख्य पर्व जो कि कार्तिक मास की अमावस्या के दिन मनाया जाता है. दीपावली का उत्सव पांच दिनों का है और यह मुख्य रूप से बाजार का, धन-धान्य और समृद्धि का उत्सव है. इस दिन देवी लक्ष्मी जो कि धन की देवी हैं और श्रीगणेश जो कि समृद्धि के देवता हैं, उनकी पूजा होती है. 

देवी लक्ष्मी को कहा गया है माया
देवी लक्ष्मी को माया कहा गया है और गणेशजी की आरती में कहा जाता है कि वह भी निर्धन को माया देते हैं. इससे यह साबित होता है कि दीपोत्सव के मर्म को लेकर बहुत गहराई में न जाएं तो यह पर्व धन को प्राप्त करने का अनुष्ठान तो है ही. वैदिक  मान्यताओं में धन-संपत्ति स्वयं लक्ष्मी स्वरूपा है. लक्ष्मी धन की देवी हैं. ऐसे में धनत्रयोदशी के दिन से ही लोग शुभ लक्ष्ण वाले धन की कामना करने लगते हैं और यही वजह है कि धनतेरस की शुरुआत शुभ मुहूर्त में सोना-चांदी या अन्य कोई पवित्र धातु खरीद कर ही होती है.

संचय का पर्व है धनतेरस
यह संचय करने का पर्व है और लोग वाकई संचय करते भी हैं. यह बिना किसी के बताए युगों और सदियों से चली आ रही इन्वेस्ट की प्रक्रिया है. आज के SIP, म्यूचुअल फंड, बीमा पॉलिसी इसी के विस्तार किए गए स्वरूप हैं. लोग पहले से ही धनतेरस के दिन कुछ न कुछ खरीदकर रखने के लिए पैसा जमा करते थे और साल भर में एक बार जरूर किसी न किसी धातु को खरीदकर उसमें इन्वेस्ट ही करते थे.  

अध्यात्मिक तौर पर धन को धूल के समान कहा गया है. उसे हाथ का मैल भी बताया गया है. वैदिक-पौराणिक सूक्तियों में भी बहुमूल्य रत्नों को महज पत्थर कहकर नकार दिया गया है, लेकिन यह धन की बेकद्री नहीं है. यह बस इतना बताने की कोशिश है कि धन सबकुछ नहीं है. लेकिन, इसका यह भी अर्थ नहीं है कि वेद पुराण कहते हों कि धन का कोई महत्व ही नहीं. दूसरा पहलू देखें तो मनुष्य को मिली चार जिम्मेदारियों में से धन कमाने की जिम्मेदारी को चार में से दूसरा स्थान मिला है. यानी धन कमाना बेहद जरूरी बताया गया है. 

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में अर्थ यानी धन दूसरा है. 

ऐसा भी नहीं है कि धन का महत्व अधिक बताया गया तो वह किसी भी तरीके से अर्जित किया जाए. चोरी-रिश्वत, लूट, या  हत्या करके कमाया धन किसी काम नहीं है. इसे पाप का मूल बताया गया है. लोग धन कमाने के लिए बेईमान भी कर रहे हैं, लेकिन ऐसे धन का पूरी तरह निषेध बताया गया है. लोकोत्ति है कि चोरी का माल मोरी (नाली) में जाता है. इसलिए सिर्फ ईमानदारी से अच्छे कार्यों के द्वारा कमाया गया पवित्र धन ही इकट्ठा करने की बात कही है. ऐसा ही धन संपत्ति के रूप में आगे जुटता चला जाता है. 

हमारे वेद-पुराण विशेषज्ञ और नीतिवान विद्वानों ने वैसे धन को सर्वोपरि नहीं माना है, लेकिन उसे बिल्कुल नकारा भी नहीं है. उन्होंने सामाजिक में जरूरी और धन के महत्व को समझाने के लिए अपनी कई रचनाओं में इसकी उक्ति की है. कई संस्कृत साहित्यों में इसका जिक्र मिल जाता है.

जैसे  आचार्य चाणक्य की बात करें तो अर्थशास्त्र में वह धन का महत्व बताते हुए लिखते हैं कि, 
यस्यार्थस्तस्य मित्राणि यस्यार्थस्तस्य बान्धवाः,
यस्यार्थः स पुमांल्लोके यस्यार्थः स च जीवति.

जिसके पास धन होता है उसी से अन्य लोग मित्रता करते हैं, अन्यथा उससे दूर रहने की कोशिश करते हैं. निर्धन से मित्रता कोई नहीं करना चाहता.

इसी प्रकार जो धनवान हो उसी के भाई और दोस्त भी होते हैं. नाते-रिश्तेदार धनवान से ही संबंध रखते हैं, नहीं तो दूरी बनाए रहने में ही भलाई मानते हैं. जिसके पास धन हो वही पुरुष माना जाता है यानी उसी को प्रतिष्ठित, पुरुषार्थवान, कर्मठ समझा जाता है. 

पंचतंत्र में भी है धन के महत्व का वर्णन
पंचतंत्र की कहानियों में भी आचार्य विष्णु शर्मा ने भी कई अलग-अलग प्रसंगों में धन के महत्व की व्याख्या की है. वह मित्रलाभ खंड में वह लिखते हैं कि
अनादिन्द्रियाणीव स्युःश कार्याण्यखिलान्यपि,
एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते.

भोजन का जो संबंध इंद्रियों के पोषण से है वही संबंध धन का सभी कार्यों के किए जाने से है. इसलिए धन को सभी उद्येश्यों को पूरा करने या अपने कामों को पूरा करने का साधन कहा गया है. 
आचार्य विष्णु शर्मा ने ऐसे ही एक और उदाहरण लिखते हैं कि,  
अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते.
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः

यह लोक धन का भूख होता है, अतः उसके लिए श्मशान का कार्य भी कार्य करने को तैयार रहता है. धन की प्राप्ति के लिए तो वह अपने ही जन्मदाता हो छोड़ दूर देश भी चला जाता है. बिना धन के जीवन निर्वाह नहीं हो सकता है. धनोपार्जन के लिए मनुष्य को छोटे-मोटे कार्य भी करने पड़ते हैं तो कई बार देश छोड़कर ही जाना पड़ता है. 

धन के महत्व की यह सूक्ति भी देखिए
इस तरह संस्कृत का एक और सूत्र श्लोक कहता है कि 
इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते.
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते. 

इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग बुरे या दूरी बनाए रखने वाले हो जाते हैं. अगर आप अपनी धनसंपदा खो बैठते हैं तो आपके निकट संबंधी भी आपके नहीं रह जाते हैं. 

संस्कृत में एक उक्ति है: धनेन अकुलीनाः कुलीनाः भवन्ति धनम् अर्जयध्वम् यानी कि धन के बल पर छोटो कुल के लोग भी कुलीन हो जाते हैं. इसी तरह एक और श्लोक में कहा गया है-

पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्यो९पि गम्यते,
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च. 

धन का प्रभाव यह होता है कि जो सम्मान के अयोग्य हो उसकी भी पूजा होती है, जो पास जाने योग्य नहीं होता है उसके पास भी जाया जाता है, जो वंदना (प्रशंसा) का पात्र नहीं होता उसकी भी स्तुति की जाती है.

समाज में सामान्य अप्रतिष्ठित व्यक्ति ढेर-सी धनसंपदा जमा कर लेता है तो वह सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान का हकदार हो जाता है. व्यक्ति जब दुर्भाग्य से अपनी संपदा खो बैठता है तो उसे सामाजिक प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ती है. 

महाभारत में धन के महत्व की कथा
महाभारत के पर्व में भी जब पांडव अपनी नई राजधानी इंद्र प्रस्थबसा लेते हैं, तब पहले तो श्रीकृष्ण उन्हें राजसूय यज्ञ करने की सलाह देते हैं. युधिष्ठिर भीष्म-धृतराष्ट्र के जीवित रहते हुए राजसूय यज्ञ नहीं कराना चाहते थे, तब श्रीकृष्ण उन्हें समझाते हैं कि अगर धर्म की स्थापना करनी है तो सिर्फ इंद्रप्रस्थ के राजा बनकर नहीं बल्कि सम्राट बनकर रहना होगा. सम्राट बनने के कई लाभ हैं, पहला तो यह कि देश के बड़े भू-भाग की संपत्ति आपकी देख-रेख में होगी. इससे आप किसानों, ब्राह्मणों, व्यापारियों और विद्वानों का समर्थन जीत पाएंगे. कुछ राजा जो मन ही मन शत्रुता पाल रहे होंगे वह सिर्फ धन की अधिकता और आपका बड़ा सामर्थ्य देखकर आपसे डरेंगे और आपसे प्रेम रखना उनके लिए जरूरी होगा. 

इस तरह आप उनका संरक्षण भी कर पाएंगे जो आपसे वाकई प्रेम करते हैं और आपके आदर्श को अपना आदर्श मानते हैं. तब श्रीकृष्ण के सुझाव पर पांडवों ने इंद्रप्रस्थ की सीमाओं का विस्तार करने के लिए राजसूय यज्ञ किया. बाद में श्रीकृष्ण ने मय दानव से इंद्रप्रस्थ और पांडवों के लिए एक चमत्कारी माया महल बनवाया था.

धन का महत्व कभी भी कम नहीं रहा है, न आगे रहेगा. बस ध्यान रखना है कि धन में भी धर्म का होना जरूरी है. तभी दीपावली पूजन सार्थक होगा.

—- समाप्त —-