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बच्चों का एक घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम का मतलब कम हो रहे 10% मार्क्स! रिसर्च में खुलासा – impact of extra screen time on children’s academic performance new research tedu


टेक्नोलॉजी के इस दौर में बच्चे मोबाइल फोन, टैबलेट से ही अपनी पढ़ाई कर रहे हैं. खासकर कोविड में ऑनलाइन पढ़ाई के बाद उनके बीच स्क्रीन टाइम बहुत बढ़ा है. लेकिन, एक रिसर्च बताती हैं कि बढ़ते स्क्रीन टाइम के कारण बच्चों में बेसिक मैथ्स और पढ़ने की समझ ठीक से विकसित नहीं हो पा रही है. यहां तक कि स्क्रीन टाइम की वजह से बच्चों के मार्क्स में 10 फीसदी तक कमी आई है.

क्या थे रिसर्च के परिणाम?

5,000 से ज्यादा कनाडाई बच्चों पर साल 2008 से 2023 तक चली इस रिसर्च में पाया गया कि शुरुआती उम्र में ही बच्चों के स्क्रीन एक्सपोजर के कारण आगे चलकर उनके कॉग्निटिव स्किल्स कमजोर हो रहे थे. इसके साथ ही मैथ्स और रीडिंग कॉम्प्रिहेंशन जैसे सब्जेक्ट्स में उनके नंबर घट रहे थे.

छोटे बच्चों में स्क्रीन टाइम का हर एक एक्स्ट्रा घंटा उनके एकेडमिक परफॉर्मेंस को 9 प्रतिशत कम कर रहा था. वहीं बड़ी उम्र के छात्रों के मैथ्स के नंबरों में हर एक घंटे के मुकाबले 10 प्रतिशत तक की गिरावट आई. हालांकि इससे राइटिंग स्किल्स ज्यादा प्रभावित नहीं हुए.

इन छात्रों के अभिभावकों ने टीवी, गेमिंग कंसोल और टैबलेट जैसे डिवाइसेज पर बिताए गए समय की जानकारी वैज्ञानिकों को दी, जिसके बाद ओंटारियो के एजुकेशन क्वालिटी एंड अकाउंटेबिलिटी ऑफिस (EQAO) ने उनका एक टेस्ट लिया. टेस्ट के परिणामों के मुताबिक जिस छात्र का जितना ज्यादा स्क्रीन टाइम था, वह बेसिक पढ़ाई में उतना ही कमजोर था.

बच्चों में घट रहा अटेंशन स्पैन और धैर्य

शिक्षकों को इसके प्रभाव सबसे पहले नजर आते हैं. डीएवी पब्लिक स्कूल की टीचर अनीता का मानना है छात्रों का अटेंशन स्पैन काफी कम हो गया है और वो किताब का एक पेज पढ़ने के जगह छोटी वीडियो क्लिप्स देखना पसंद करते हैं.

डीपीएस स्कूल में पढ़ाने वाली करिश्मा कहती हैं कि आजकल बच्चों में धैर्य (patience) कम हो गया है. तुरंत किसी सवाल का जवाब न मिलने पर वो हार मान लेते हैं.

लग जाती है यूट्यूब शॉर्ट्स और रील्स की लत

एक्सपर्ट्स का मानना कि स्क्रीन पर आप क्या देख रहे हैं, आपके दिमाग पर इसका प्रभाव भी पड़ता है. यूट्यूब शॉर्ट्स, इंस्टाग्राम रील्स और गेमिंग ऐप दिमाग में डोपामाइन हार्मोन का लेवल बढ़ा देते हैं, जिससे आपको कुछ समय के लिए आनंद का अनुभव होता है, लेकिन आगे चलकर यह आदत एक लत का रूप ले लेती है.

बच्चों की साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर नेहा कपूर के मुताबिक बच्चों के दिमाग को इस तरह की खुशी की आदत हो जाती है, जिससे पढ़ाई के पुराने तरीकों से वो ऊब जाते हैं. लगातार होती यह सिमुलेशन उनके दिमाग की नसों को रीवायर कर देती है, जिससे फोकस करना और डीप थिंकिंग मुश्किल हो जाती है.

अभिभावकों की शिकायत

छात्रों के अभिभावकों की शिकायत है कि कोविड के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई के लिए खरीदा गया फोन, टैबलेट या लैपटॉप अब पढ़ाई से ज्यादा गेम खेलने और वीडियो देखने के लिए इस्तेमाल होता है.

वे कहते हैं कि आजकल होमवर्क, रिसर्च और स्कूल अपडेट भी ऑनलाइन मिलने लगे हैं. उन्हें डर है कि उनके बच्चे इन डिवाइसेज पर ज्यादा निर्भर न हो जाएं.

स्कूलों ने उठाए यह कदम

कुछ स्कूल छात्रों में स्क्रीन टाइम को कम करने के लिए कदम उठा रहे हैं. डीएवी पब्लिक स्कूल ने ‘नो-स्क्रीन फ्राइडे’ शुरू किया है. इस दौरान छात्र किसी भी तरह के स्क्रीन एक्सपोजर की जगह कहानियां पढ़ते हैं, पजल्स सॉल्व करते हैं या पूरे हफ्ते उन्होंने जो सीखा, उसके बारे में बताते हैं.

माता-पिता को सलाह

माता-पिता को अपने बच्चों को खाना खाते समय और सोने से पहले डिवाइसेज न देखने देने की सलाह दी जाती है. बच्चे इसकी जगह बाहर खेलने, डायरी लिखने या परिवार के साथ बैठकर कुछ पढ़ने जैसे विकल्पों के जरिए अपनी जिज्ञासा और फोकस को बेहतर कर सकते हैं.

समस्या टेक्नोलॉजी नहीं, बल्कि उसका जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल है. डॉक्टर कपूर कहती हैं कि माता-पिता और शिक्षकों को बच्चों को डिजिटल अनुशासन के बारे में बताना चाहिए.

बड़ी होती इस डिजिटल दुनिया में छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को और नुकसान न पहुंचे, इसलिए उनका अटेंशन किताबों या बातचीत के जरिए वापस लाने की कोशिश होनी चाहिए.

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