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ISI की उस गलतफहमी का किस्सा… पाकिस्तान का ‘ब्रेन चाइल्ड’ तालिबान कैसे जानी दुश्मन बन गया? – Taliban Pakistan history Afghanistan fall of Kabul clash in Kurram ttp afghan taliban ntcppl


अगस्त 2021 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा किया तो उसके कुछ दिन बाद एक तस्वीर काफी चर्चा में रही थी. ये तस्वीर थी ISI चीफ लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद है की. फैज हमीद पाकिस्तान आर्मी के टॉप अफसरों के साथ काबुल के एक आलीशान होटल में चाय पी रहे थे. तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा कर चुका था. 

बड़ी उम्मीदों के साथ तत्कालीन पीएम इमरान खान के कहने पर पाक आर्मी की टीम काबुल पहुंची थी. 

 फैज हमीद से एक पत्रकार ने पूछा, “आपको क्या लगता है कि अब अफ़ग़ानिस्तान में क्या होने वाला है?”

उनका जवाब था, “सब ठीक हो जाएगा.”

ISI चीफ की यह गलतफहमी इस विश्वास से पैदा हुई थी कि तालिबान पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के इशारे पर चलेगा. 

इमरान ख़ान के नेतृत्व वाली तत्कालीन पाकिस्तानी सरकार ने पाकिस्तानी तालिबान के साथ बातचीत की. इसके बाद पाकिस्तान की जेलों में बंद 100 से अधिक तालिबान कैदियों को रिहा कर दिया गया. 

लेकिन तालिबान को लेकर फैज हमीद और पाकिस्तानी सेना दोनों का ही आकलन गलत था. फैज हमीद आज जेल में बंद हैं और पाक आर्मी उनपर कोर्ट मार्शल चला रही है. वहीं अफगान तालिबान पाकिस्तान को सबक सिखाने के मूड में है.

ISI चीफ की काबुल में चाय पीती ये तस्वीर काफी चर्चा में रही है. (Photo: ITG)

इस चाय की कड़वाहट पाकिस्तान अभी तक नहीं भूल सका है. लगभग एक साल पहले पाकिस्तान के डिप्टी पीएम इशाक डार ने कहा था कि वो एक कप चाय पाकिस्तान को कितनी महंगी पड़ी थी. 

सितंबर 2024 में इशाक डार ने हमीद का नाम लिए बिना कहा, “मुल्क अफग़ानिस्तान में उस चाय की कीमत चुका रहा है.” उप-प्रधानमंत्री ने आगे कहा कि जनरल द्वारा कुछ आतंकवादियों को रिहा करने का फैसला ही पाकिस्तान भर में बढ़ते हमलों का कारण बना है. उन्होंने कहा था, “उस समय रिहा किए गए लोग आज बलूचिस्तान में आतंकवाद का मास्टरमाइंड हैं.”

इस्लामिक उम्माह की छतरी, बिरादर मुल्क का भ्रम

तालिबान और पाकिस्तान. कभी ऐसा समय था कि दोनों एक दूसरे को बिरादर कहते हुए फूले नहीं समाते. इस्लामिक उम्माह की छतरी थी, 2640 किलोमीटर लंबा साझा बॉर्डर था, साथ जीने-खाने का सैकड़ों साल पुराना इतिहास था. लिहाजा अफगानिस्तान और पाकिस्तान दक्षिण एशिया की एक ही जमीन पर साथ-साथ जी खा रहे थे. अफगानिस्तान और पाकिस्तान की दोस्ती का अहम फैक्टर तालिबान रहा. जो 1990 से ही अफगानिस्तान के समाज और सियासत को प्रभावित करता रहा है. 

तालिबान और पाकिस्तान के बीच गहरे रिश्ते ऐतिहासिक, भू-राजनीतिक और रणनीतिक फैक्टर की वजह से बने. 1990 के दशक में तालिबान के उदय के दौरान, पाकिस्तान ने उसे समर्थन दिया, क्योंकि वह अफगानिस्तान में एक अनुकूल सरकार चाहता था. तालिबान शरिया अनुकूल शासन चाहता था और पाकिस्तान को इससे कोई दिक्कत नहीं थी. 

उल्टे पाकिस्तान का कुछ तबका तालिबान के इन मूल्यों को आदर्श मानता था और ऐसी ही शासन पद्धति अपने यहां चाहता था. पाकिस्तान के कट्टरपंथी कौमी फिरके इसके उदाहरण थे.  

पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने तालिबान को सैन्य प्रशिक्षण, हथियार और आर्थिक मदद प्रदान की, ताकि वह सोवियत-अफगान युद्ध के बाद अस्थिर अफगानिस्तान में सत्ता हासिल कर सके. इसके पीछे पाकिस्तान के अपने हित थे, वह अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव करना चाहता था और अपने पड़ोसी मुल्क में स्ट्रैटेजिक डेप्थ ( रणनीतिक गहराई) हासिल कर अपनी मौजूदगी दर्ज कराना चाहता था. ताकि अमेरिका को इस क्षेत्र में सोवियत रूस के खिलाफ अपनी लड़ाई में पाकिस्तान पर निर्भर रहना पड़े. अमेरिका का ‘वॉर ऑन टेरर’ मिशन अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बिना मुकम्मल नहीं होने वाला था. 

इसलिए लंबे समय से अस्थिरता से जूझ रहे अफगानिस्तान में पाकिस्तान ने अपनी दखल जारी रखी. पाकिस्तान के कबायली इलाकों, विशेष रूप से वजीरिस्तान, ने तालिबान के लिए सुरक्षित ठिकाने प्रदान किए. 

दोनों के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक समानताएं जैसे पश्तून पहचान और कट्टरपंथी विचारधारा ने भी रिश्तों को मजबूत किया. 2001 में 9/11 हमलों के बाद हालांकि पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर अमेरिका का साथ दिया लेकिन कई आरोप लगे कि उसने चुपके से तालिबान की मदद जारी रखी. परवेज मुशर्रफ इस मुहिम के रणनीतिकार थे. उन्होंने अमेरिका का समर्थन किया, क्योंकि इससे पाकिस्तान को आर्थिक सहायता, सैन्य मदद और अंतरराष्ट्रीय वैधता मिली.

अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में सहयोगी माना जिसके बदले में अरबों डॉलर की सहायता दी गई. हालांकि मुशर्रफ ने तालिबान को चुपके से समर्थन जारी रखने की रणनीति अपनाई, क्योंकि तालिबान अफगानिस्तान में पाकिस्तान के रणनीतिक हितों का हिस्सा था. पाकिस्तान चाहता था कि अफगानिस्तान में उसका प्रभाव बना रहे. 

अमेरिका की विदाई और पाकिस्तान के मन में लड्डू

अगस्त 2021 में तालिबान ने जब अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया तो पाकिस्तान में जश्न का माहौल था. आर्मी चीफ फैज हमीद काबुल गए. पाकिस्तान को लगा कि अब अफगानिस्तान में ‘फ्रेंडली गवर्नमेंट’ बनेगा. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसे ग्रुप को कंट्रोल करेगा, सीमा सुरक्षित होगी और चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर को बूस्ट मिलेगा. 

सहयोगी से शत्रु कैसे बने तालिबान-पाकिस्तान

तीन साल में ही पाकिस्तान की उम्मीदें टूटने लगी. ये तब शुरू हुआ जब अफगानिस्तान सरकार ने स्वतंत्र विदेश नीति पर चलना शुरू किया. लेकिन पाकिस्तान को ये रास नहीं आया. इस बीच पाकिस्तान ने सीमा पर बाड़ लगानी शुरू की. जिससे दोनों देशों के रिश्ते और बिगड़े. तालिबान ने इसे अवैध कहा. तालिबान ने दोनों देशों को बांटने वाली डूरंड लाइन को कभी मान्यता नहीं दी. 

TTP का मुद्दा

टीटीपी यानी कि तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान वैचारिक रूप में अफगान तालिबान से वैचारिक रूप से जुड़ा है, लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ लड़ता है. 2021 के बाद TTP ने अफगानिस्तान में शरण ली. टीटीपी  पाकिस्तान में इस्लामिक शासन चाहता है. हाल के दिनों में पाकिस्तान पर उसके हमले बढ़े हैं. 2025 में टीटीपी ने पाकिस्तान में छोटे बड़े 600 से ज्यादा हमले किए हैं. इसमें 2400 से ज्यादा मौतें हुईं हैं. 

पाकिस्तान का आरोप है कि काबुल TTP को हथियार, ट्रेनिंग और पनाह दे रहा है. 

तालिबान इन्हें सपोर्ट देने से इनकार करता है. लेकिन इतना जरूर कहता है कि  हम TTP को कंट्रोल नहीं करेंगे. वे हमारे बिरादर हैं. तालिबान के इस स्टैंड ने  पाकिस्तान की ‘स्ट्रैटेजिक डेप्थ’ पॉलिसी को उलट दिया है. पाकिस्तान इन हमलों को भारत से जोड़ने का नाकाम कोशिश करता है और इतने ‘फितना अल ख्वारिज’ और ‘फितना-अल-हिन्दुस्तान’ कहता है. 

सीमा विवाद

दोनों देशों के बीच 2640 किमी लंबी यह सीमा पश्तून इलाकों को बांटती है. इसे डूरंड लाइन कहा जाता है.  तालिबान और अफगान सरकार इसे मानने से इनकार करते हैं, जिससे लगातार संघर्ष होता है.​ 

तालिबान की नीति में बदलाव

तालिबान सत्ता में आया तो उसने पाकिस्तान की ‘डिक्टेट करने’ वाली भूमिका अस्वीकार कर दी. पाकिस्तान ने 8 लाख से ज्यादा अफगान शरणार्थियों को पाकिस्तान से वापस भेज दिया. ये कदम तालिबान को चुभा. सुरक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि तालिबान अब शुरुआती स्टेज से निकल अफगानिस्तान का स्वतंत्र और संप्रभु शासक की तरह व्यवहार करना चाहता है. वो स्वतंत्र विदेश नीति का पालन कर रहा है. भारत से अच्छे रिश्ते कर रहा है, अफगानिस्तान का ये रोल पाकिस्तान को चुभ रहा है. विश्वेषक कहते हैं कि तालिबान अब ‘इंडिपेंडेंट’ हो गया है, पाकिस्तान की ‘पपेट’ नहीं रहना चाहता है. 

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