उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में स्थित दारुल उलूम देवबंद दुनिया के सबसे प्रसिद्ध इस्लामी शिक्षण संस्थानों में से एक है. 1866 में स्थापित यह मदरसा आज भी इस्लामी शिक्षा, परंपरा और नैतिकता का केंद्र माना जाता है. हाल ही में जब अफगानिस्तान के विदेश मंत्री और तालिबान नेता अमीर खान मुत्तकी ने देवबंद का दौरा किया, तो यह संस्था चर्चा में आ गई.
मुत्तकी ने यहां नमाज़ अदा की, मौलवियों से मुलाकात की और भारत-अफगानिस्तान के रिश्तों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि देवबंद इस्लामी दुनिया का बड़ा केंद्र है और अफगानिस्तान से इसका गहरा रिश्ता है.
लेकिन सवाल यह है कि आखिर देवबंद के मदरसों में पढ़ाई कैसी होती है? क्या यहां केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है या आधुनिक विषय भी शामिल हैं? आइए जानते हैं-
देवबंद की ऑफिशियल वेबसाइट के अनुसार, दारुल उलूम की स्थापना ब्रिटिश शासन के दौरान 1866 में इस उद्देश्य से की गई थी कि मुस्लिम समुदाय को धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जा सके. यहां शिक्षा का मूल आधार है-दर्स-ए-निजामी, जो इस्लामी शिक्षा का एक पारंपरिक और प्राचीन पाठ्यक्रम है. इस पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों को अरबी, फारसी, उर्दू और इस्लामिक शास्त्रों की गहन पढ़ाई कराई जाती है. यह वही कोर्स है जिसे आज दक्षिण एशिया के हजारों मदरसों में अपनाया गया है.
कुरआन और भाषा की शिक्षा
देवबंद की वेबसाइट के मुताबिक, शिक्षा की शुरुआत कुरआन से होती है. सबसे पहले बच्चों को नजीराह यानी कुरआन को सही उच्चारण के साथ पढ़ना और फिर हिफ्ज यानी उसे याद करना सिखाया जाता है. इसके साथ ही उन्हें उर्दू, अरबी और फारसी भाषाओं की बुनियादी शिक्षा दी जाती है. यही वो आधार है जिस पर आगे की पूरी धार्मिक शिक्षा टिकी होती है. इस स्तर को ‘मुतवस्सिता’ कहा जाता है. छात्रों को इस्लाम की बुनियादी बातें-नमाज, रोजा, जकात, इस्लामी इतिहास और नैतिक आचरण सिखाई जाती हैं.
अरबी, हदीस और फिकह की पढ़ाई
जब छात्र आगे बढ़ते हैं, तो उन्हें अरबी व्याकरण (नह्व और सरफ), कुरआन की व्याख्या (तफसीर), हदीस और फिकह (इस्लामी कानून) पढ़ाया जाता है.कई रिपोर्ट बताती है कि दारुल उलूम का दर्स-ए-निजामी पाठ्यक्रम दक्षिण एशिया के लगभग हर प्रमुख मदरसे में मानक के रूप में अपनाया गया है. छात्रों को तर्कशास्त्र (मंतिक), दर्शनशास्त्र (फलसफा) और उसूल-उल-फिकह (इस्लामी विधि के सिद्धांत) की भी शिक्षा दी जाती है, ताकि वे इस्लामी ग्रंथों को विश्लेषणात्मक दृष्टि से समझ सकें.
उच्च स्तर: विशेषज्ञता और अनुसंधान
देवबंद के उच्च स्तर पर विद्यार्थी विशेष अध्ययन के लिए विभिन्न कोर्स चुनते हैं. देवबंद की वेबसाइट के मुताबिक, यहां कई प्रमुख ‘तखस्सुस’ यानी स्पेशलाइज़ेशन कोर्स चलाए जाते हैं, जैसे-
तखस्सुस फिल हदीस– हदीस की प्रमुख किताबों जैसे बुखारी, मुस्लिम आदि का गहन अध्ययन.
तकमील इफ्ता – इस्लामी कानून और फतवा लेखन में विशेषज्ञता.
तखस्सुस फिल अदब-अरबी भाषा और साहित्य में महारत.
तकमील तफसीर – कुरआन की व्याख्या में गहराई से अध्ययन.
इन कोर्सों को पूरा करने के बाद छात्रों को ‘आलिम’ (इस्लामी विद्वान) की उपाधि दी जाती है. आगे जो ‘इफ्ता’ में पढ़ाई करते हैं, वे ‘मुफ्ती’ बनते हैं यानी ऐसे व्यक्ति जिन्हें धार्मिक फैसले (फतवे) देने का अधिकार होता है.
आधुनिक शिक्षा का सीमित समावेश
हालांकि देवबंद पारंपरिक शिक्षा प्रणाली पर चलता है, लेकिन समय के साथ यहां कुछ आधुनिक विषयों को भी शामिल किया गया है.
देवबंद की वेबसाइट के मुताबिक, अब वहां पत्रकारिता, कंप्यूटर एप्लिकेशन, अंग्रेजी भाषा, और कंपेरेटिव रेलिजन जैसे कोर्स भी पढ़ाए जाते हैं. इसके अलावा शिक्षक प्रशिक्षण का कोर्स भी संचालित होता है, ताकि विद्यार्थी आगे चलकर अध्यापन कार्य कर सकें.
हालांकि देवबंद के प्रवक्ता मौलाना अरशद मदनी ने The Indian Express से बातचीत में कहा था कि मदरसे सरकार से किसी प्रकार की मदद नहीं लेते, ताकि धार्मिक शिक्षा में सरकारी दखल न हो.उन्होंने यह भी कहा कि देवबंद का उद्देश्य इंजीनियर या वैज्ञानिक तैयार करना नहीं, बल्कि धर्म के विद्वान और समाज के मार्गदर्शक तैयार करना है.
अंतिम चरण: ‘दौर-ए-हदीस शरीफ’
दारुल उलूम का सबसे प्रतिष्ठित और अंतिम कोर्स ‘दौर-ए-हदीस शरीफ’ कहलाता है. इसमें छात्र इस्लाम की छह प्रमुख हदीस पुस्तकों का गहराई से अध्ययन करते हैं-सहीह बुखारी, सहीह मुस्लिम, अबू दाऊद, तिर्मिजी, नसाई और इब्न माजा. इस कोर्स के बाद छात्रों को ‘आलिम’ की डिग्री दी जाती है, जो इस्लामी दुनिया में सम्मानजनक मानी जाती है.
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