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RJD के सामने क्या घुटने टेक रही है कांग्रेस? सौ सीटें मांग रही थी, 58 पर सिमट गई – why Congress compromised to fight fewer seats in Bihar elections as compared to 2020 opns2


अभी कुछ दिन पहले की ही बात जब बिहार में ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस कहीं अकेले ही न विधानसभा चुनावों के लिए उतर जाए. कांग्रेस के बिहार प्रभारी इस तरह की बातें कर रहे थे जिससे यही संदेश जा रहा था कि कांग्रेस बिहार में नया अवतार लेने वाली है. फिर एक ऐसा दौर आया जब लगा कि कांग्रेस महागठबंधन में रहेगी पर बराबरी वाली भूमिका चाहती है. यानि कि कम से कम 100 सीटें से कम में बात नहीं बनेगी. पर अब जैसी खबर आ रही है उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस ने पूरी तरह आरजेडी के सामने हथियार डाल दिए हैं.

इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने अपने सूत्रों के हवाले खबर छापी है कि कांग्रेस बिहार चुनावों के लिए पिछली बार के मुक़ाबले 12 कम सीटों पर तैयार हो गई है. बिहार विधानसभा चुनाव के लिए INDIA गठबंधन (महागठबंधन) में सीट बंटवारे की बातचीत अंतिम चरण में है. 2020 में कांग्रेस को 70 सीटें मिली थीं, जहां से वे सिर्फ 19 जीत पाईं (स्ट्राइक रेट -27%). लेकिन इस बार, रिपोर्ट्स के मुताबिक, कांग्रेस को लगभग 58 सीटें मिलने की संभावना है यानी 12 कम. यह फैसला अभी आधिकारिक नहीं है, लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे की 8 अक्टूबर की मीटिंग और तेजस्वी यादव से बातचीत के बाद लगभग तय माना जा रहा है. आइए देखते हैं कि ये कैसे हुआ? 

क्या SIR के मुद्दे का हवा निकलना कारण रहा

कांग्रेस ने इस चुनाव से पहले बिहार में SIR यानी Special Intensive Revision of voter list का मुद्दा जोरशोर से उठाया था. पार्टी का आरोप था कि चुनाव आयोग और केंद्र सरकार मिलकर मतदाता सूचियों से अल्पसंख्यकों और दलितों के नाम हटा रही है. वोट चोरी के इस मुद्दे पर राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की वोटर अधिकार यात्रा भी इसी एजेंडे पर केंद्रित थी.

शुरुआती दौर में यह मुद्दा कांग्रेस के लिए एक बड़ा नैरेटिव बना, जिससे लगा कि वह राजद की छाया से बाहर निकलकर अपने स्वतंत्र एजेंडे पर जनता से जुड़ने की कोशिश कर रही है. लेकिन जब चुनाव आयोग ने आंकड़े जारी किए और यह स्पष्ट हुआ कि डिलीशन (नाम हटाए जाने) की प्रक्रिया सामान्य थी, तो यह मुद्दा ठंडा पड़ गया. कांग्रेस का आरोप तथ्यात्मक रूप से कमजोर साबित हुआ और जनता के बीच इसकी विश्वसनीयता घट गई.

SIR विवाद के चलते कांग्रेस को जो राजनीतिक स्पेस मिल सकता था, वह हाथ से निकल गया.आरजेडी ने शायद इसी के चलते इस मुद्दे पर बहुत जोर नहीं दिया. तेजस्वी यादव ने फिर से अपनी यात्रा निकाली और इस मुद्दे पर बात तक नहीं की. कांग्रेस नेताओं को संभवतया ये अहसास हो गया कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद का वोट बैंक  खासकर यादव, मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग अब भी उनके साथ बना हुआ है. जबकि कांग्रेस के पास केवल कुछ परंपरागत सीटों और सीमांचल इलाकों में ही प्रभाव बचा रह गया है. यही कारण रहा कि सीट-बंटवारे की बातचीत में आरजेडी ने आक्रामक रुख अपनाया, जबकि कांग्रेस को व्यावहारिक रूप से समझौते का रास्ता चुनना पड़ा.

मजबूत सीट लेना तो एक बहाना है

कांग्रेस समर्थकों का कहना है कि इस बार कांग्रेस ने कम सीटों पर इसलिए समझौता कर लिया है क्योंकि उसे जिताऊ सीटें मिल रही हैं. कांग्रेस बार-बार कहती रही है कि पिछली बार आरजेडी ने उसे 70 सीटें तो दी थीं पर उनमें से अधिकतर ऐसी थीं जहां से महागठबंधन का जीतना मुश्किल था. दूसरी बात यह भी थी कि कांग्रेस के पास आरजेडी के अलावा कोई और वैकल्पिक गठबंधन मौजूद नहीं था. इसके चलते जाहिर है कि कांग्रेस की बार्गेनिंग कपैसिटी कम हो गई. 

इसके साथ ही कांग्रेस के पास न तो स्वतंत्र चुनाव लड़ने की ताकत है और न ही बिहार में पार्टी का संगठन बचा है. अधिकतर सीटों पर उसके पास मजबूत स्थानीय चेहरा या बूथ लेवल नेटवर्क नहीं है. ऐसे में जाहिर है कि उसके पास आरजेडी के शरण में जाने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा है.

जन सुराज पार्टी का लाइमलाइट में आना

प्रशांत किशोर की अगुवाई वाली जन सुराज पार्टी ने बिहार के राजनीतिक मैदान में तीसरे विकल्प के रूप में चर्चा हासिल करना भी कांग्रेस को खुद को समेटने का एक कारण बना है. पार्टी अभी भले ही नई हो, लेकिन उसके मुद्दे सुशासन, रोजगार, पलायन और शिक्षा सुधार उन वर्गों को आकर्षित कर रही है जो पारंपरिक रूप से कांग्रेस के वोट बैंक में रहे हैं. JSP ने खासकर युवा, शहरी और मध्यम वर्ग के मतदाताओं में उम्मीद की भावना जगाई है. इससे कांग्रेस की विकल्प वाली अपील कमजोर पड़ गई.

जन सुराज पार्टी के लाइमलाइट में आने से महागठबंधन का वोट बैंक बिखरने का खतरा बढ़ गया. आरजेडी के लिए यह चुनौती है, लेकिन कांग्रेस के लिए तो यह अस्तित्व का सवाल है. राजद को उम्मीद है कि उसका कोर वोटर स्थिर रहेगा, लेकिन कांग्रेस के पास न तो स्पष्ट जातीय आधार है, न ही कोई करिश्माई चेहरा. ऐसे में, जन सुराज का उभार कांग्रेस के हिस्से के वोटों को और कम कर देता,खासकर सीमांचल, मगध और कोसी जैसे इलाकों में. इसलिए कांग्रेस ने राजद से टकराव मोल न लेकर गठबंधन में सीमित हिस्सेदारी स्वीकार करने का रास्ता चुना.

गठबंधन में नए सहयोगियों का आना

2020 के चुनावों की तुलना में इस बार महागठबंधन में सहयोगी दलों की संख्या बढ़ी है. अब RJD, कांग्रेस और वाम दलों के साथ-साथ विकासशील इंसान पार्टी (VIP) जैसे क्षेत्रीय दलों और छोटे सामाजिक समूहों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की जा रही है.
 इसका सीधा असर कांग्रेस पर पड़ा, क्योंकि RJD बतौर सबसे बड़ी पार्टी स्वाभाविक रूप से ज्यादा सीटें अपने पास रखना चाहती है. नए सहयोगियों के आने से गठबंधन में सीटों का संतुलन बिगड़ा और उस संतुलन को बनाए रखने के लिए कांग्रेस ने कम सीटों पर भी तैयार रहने का व्यावहारिक फैसला किया है.नए सहयोगियों के आने से RJD के पास विकल्प बढ़ गए, जबकि कांग्रेस के पास मोलभाव की गुंजाइश घट गई. ऐसे में कांग्रेस को गठबंधन की एकता बनाए रखने के लिए समझौते की नीति अपनानी पड़ी क्योंकि अलग होकर लड़ने का मतलब अपने वोट शेयर को और कम करना होता.

अगर इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर का भरोसा करे तो उम्मीदवारों की सूची में कांग्रेस के 17 में से 15 मौजूदा विधायकों इस बार पार्टी टिकट दे रही है. दो विधायकों के नाम होल्ड पर रखे गए हैं. पार्टी इनमें से किसी की जगह नया उम्मीदवार उतार सकती है या संबंधित सीटें अपने सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के साथ बदल सकती है.

दरअसल 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 70 सीटों में से 19 सीटें जीती थी. इनमें से दो विधायक मुरारी प्रसाद गौतम (चेनारी) और सिद्धार्थ सौरव (विक्रम) बाद में पार्टी से बगावत कर चुके हैं और माना जा रहा है कि वे आगामी चुनाव में भाजपा के टिकट पर मैदान में उतर सकते हैं. अखबार अपने सूत्रों के आधार पर लिखता है कि कांग्रेस पार्टी में करीब 25 उम्मीदवारों के नाम तय माने जा रहे हैं.

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