आखिरकार वो दिन आने वाला है, जिसका डोनाल्ड ट्रंप समेत बहुतों को इंतजार रहा. जल्द ही नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा होने वाली है, जिस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बार-बार दावेदारी जता चुके. इंटरनेशनल पुरस्कारों में सबसे विवादित पीस प्राइज को लेकर कई बार प्रोटेस्ट भी हो चुके. यही वजह है कि विजेता चुनने वाली कमेटी को काफी एहतियात से रखा जाता है. इसके बाद भी धमकियां कॉमन हैं.
शांति पुरस्कार को लेकर क्यों सबसे ज्यादा अशांति
ये सबजेक्टिव प्राइज है, जिसे साइंस की तरह नापा-तौला नहीं जा सकता. कई बार ऐसे लोगों को पुरस्कार मिल चुका, जिनका रिकॉर्ड हिंसा या युद्ध से जुड़ा था. जैसे, साल 1994 में फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात को अवॉर्ड मिला. इसके साथ ही आलोचनाएं शुरू हो गईं. दरअसल अराफात का नाम लगातार हिंसा से जुड़ता रहा. पूछा जाने लगा कि पुरस्कार शांति के लिए है, या हत्याओं के लिए.
मुद्दा तब और उछला, जब साल 2010 में चीन के एक्टिविस्ट लियू शियाओबो को नोबेल मिला. तब शियाओबो देशद्रोह के आरोप में जेल में थे. दूसरी तरफ कमेटी उन्हें अवॉर्ड दे रही थी. बीजिंग ने इसे अपने अंदरुनी मामलों में दखल मानते हुए नोबेल समारोहों का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया. चीन ने पुरस्कार देने से रोक पर दबाव डाला, लेकिन कमेटी ने निर्णय बदलने से मना कर दिया क्योंकि ऐसा करने से उसकी विश्वसनीयता कम हो जाती.
यहां तक कि बराक ओबामा को राष्ट्रपति काल के दौरान मिले सम्मान पर भी ऊंगली उठाई गई कि ये बहुत जल्दबाजी में हुआ.

कौन लेता है नोबेल पुरस्कार पर फैसला
इसमें पांच सदस्य होते हैं. ये नॉर्वेजियन संसद के सदस्य होते हैं, जिन्होंने शांति और अंतरराष्ट्रीय मामलों पर काम किया हो. कमेटी नॉमिनेशन लेती है और वोट देते हुए विजेता चुनती है.
इन सदस्यों का नाम सार्वजनिक होता है लेकिन बाकी कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं होती. जैसे नॉमिनेशन बंद होने के बाद से लगभग पूरे साल बंद कमरे में मीटिंग होती है. हर सदस्य अपने स्तर पर नॉमिनेट किए हुए लोगों का रिकॉर्ड चेक करता है. कौन किसे नामांकित करता है और अंदरूनी बहसें क्या हुईं, ये 50 साल तक गोपनीय रखा जाता है.
इतनी एतहियात के बाद भी चूंकि विवाद होता रहता है, लिहाजा कमेटी को कड़ी सुरक्षा में रखा जाता है. पुलिस या निजी सुरक्षा दल सदस्य के घर के बाहर और अंदर सुरक्षा रखते हैं. कभी-कभी CCTV और गार्ड्स लगाए जाते हैं. सदस्यों को आर्मर्ड गाड़ियां दी जाती हैं, जिनकी खिड़कियां और दरवाजे बुलेटप्रूफ होते हैं. यशॉक-रिसिस्टेंट बॉडी होती है. एन्क्रिप्टेड फोन और रेडियो दिया जाता है ताकि किसी भी आपातकालीन सूचना को तुरंत सुरक्षा टीम तक भेजा जा सकता. रोज की आवाजाही में भी पक्का किया जाता है ताकि सदस्यों को सुरक्षित पैसेज मिल सके.

कब-कब मिली चुकी धमकियां
अस्सी के दशक में कमेटी ने ऐसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अवॉर्ड दिया, जो दक्षिण अफ्रीका की नीतियों के खिलाफ काम करने वाले थे. इसके तुरंत बाद कमेटी को फोन और खतों के जरिए धमकियां मिलने लगीं. इसके बाद ही ये तय हुआ कि कमेटी सदस्यों को अतिरिक्त सिक्योरिटी दी जाए.
फिलिस्तीनी नेताओं को शांति पुरस्कार मिलने पर भी कमेटी पर दबाव बना. यहां तक कि डिजिटल धमकी और व्यक्तिगत हमले की चर्चा होने लगी. साल 2012 में EU को शांति पुरस्कार मिलने पर भी काफी हंगामा हुआ था और कमेटी सदस्यों की सुरक्षा के लिए कई एजेंसियों को लगा दिया गया.
वैसे ये भी है कि पुरस्कार पर जितनी ऊंगलियां उठें लेकिन इसकी मान्यता भी उतनी ही है. यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कई बार खुद को पीस प्राइज का हकदार बता चुके. उन्होंने ये तक कह दिया कि उन्हें ये अवॉर्ड न मिला तो ये पूरे देश का अपमान होगा. हालांकि कोई कितना भी कहे-बोले लेकिन नोबेल कमेटी के फैसले को अदालत में चुनौती नहीं दी सकती. नॉर्वेजियन नोबेल कमेटी का फैसला अंतिम है और कोई नामांकित व्यक्ति कमेटी पर दबाव डालकर या कानून की मदद से पुरस्कार हासिल नहीं कर सकता.
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