ये कहना जरा मुश्किल है कि किसी भी इलाके के स्थानीय रक्षक देवताओं की पूजा और अनुष्ठान वैदिक युग की देन हैं या नहीं, लेकिन जब प्रचलित लोककथाओं और लोगों के सुने हुए किस्सों से इन देवताओं को समझने की कोशिश करें तो प्रकृति से उनका जुड़ाव उन्हें वैदिक परंपरा के बहुत नजदीक ले जाकर खड़ा करता है. फिर वे देवता चाहे उत्तर के गांवों की सीमा पर स्थापित डीह बाबा हों, पीपल-बरगद के पेड़ पर रहने वाले बरम बाबा (ब्रह्न बाबा), तालाबों-पोखरों के रक्षक देवता बूड़म बाबा या फिर अभी हाल में आई फिल्म कंतारा में दिखाए गए गुलिगा और पंजुरली.
लोक देवताओं की परंपरा और प्रकृति पूजा
लोक देवताओं की परंपरा को तबसे अस्तित्व में माना जा सकता है, जब से धरती पर आदमी की आमद हुई और उसने प्रकृति को हमेशा खुद से असीम ताकतवर पाया. उसी ताकत को खुद भी पाने के लिए आदमी ने देवता को पूजा और उसकी मौजूदगी को अपने भीतर महसूस भी करने लगा.
कन्नड़ फिल्म कांतारा की सफलता ने दैवों या स्थानीय रक्षक देवताओं की पूजा और वहां के स्थानीय भूत कोला उत्सव को सुर्खियों में ला दिया है. फिल्म एक काल्पनिक कहानी पर आधारित है, लेकिन इसमें दिखाए गए स्थानीय देवता और त्योहार वास्तविक परंपराओं से लिए गए हैं.
कुलदेवता या रक्षक, आखिर दैव क्या हैं?
दैव दक्षिण कर्नाटक के तुलु नाडु क्षेत्र और केरल के कुछ हिस्सों में पूजे जाते हैं. ये स्थानीय लोक देवता हैं. इनकी पूजा संभवतः वैदिक काल से पहले की है. उनके पूजा की शुरुआत कब हुई, इस पर कोई निश्चित शोध नहीं है. हिंदू धर्म में, देवताओं को उनके संरक्षण के अनुसार बांटा गया है. कुछ कुलदेवता होते हैं, जो एक कबीले से जुड़े होते हैं. कुछ ग्रामदेवता, जो एक गांव समुदाय से जुड़े होते हैं, जबकि अन्य इष्टदेवता होते हैं, जो व्यक्तियों द्वारा प्रिय होते हैं. दैवों को क्षेत्रपाल कहा जाता है, या किसी विशेष भूमि के रक्षक देवता.
नृत्य से जुड़ी परंपरा जिसमें दैव कलाकार में समा जाते हैं
दैवों की पूजा पारंपरिक रूप से खुले में की जाती है और ये लोक परंपरा से जुड़े हैं जो मुख्यधारा के हिंदू धर्म से अलग लेकिन फिर भी उसके हिस्से हैं. तुलुनाडु में इन लोक देवताओं की पूजा भूत कोला उत्सव के दौरान की जाती है, जिसमें एक नर्तक कलाकार दैव की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है और माना जाता है कि नृत्य के दौरान देवता उसमें खुद समा जाते हैं.
कुछ लोकप्रिय भूत या दैव हैं पंजुरली, बोंबैर्या, पिलिपूटा, कलकुडा, कल्बुर्ती, पिलिचामुंडी, गुलिगा और कोटी चेन्नाया. दैव मूल रूप से खुले स्थान में पेड़ के नीचे रखे गए असंरचित पत्थर के रूप में पूजे जाते थे, लेकिन बाद के दिनों में दैव पूजा के लिए मूर्तियों का उपयोग होने लगा.
पंजुरली और गुलिगा की लोक-पौराणिक कथा
फिल्म कांतारा की कहानी दो दैवों – पंजुरली और गुलिगा की पूजा के इर्द-गिर्द घूमती है. पंजुरली दैव की कहानी दंतकथाओं से विस्तार पाती रही है. कहानी में दर्ज है कि एक जंगली सूअर शिव और पार्वती के प्रिय वन में मर गया. यह ईश्वर का मधुवन था, जिसे देवता (शिव-पार्वती) ने अपने एकांत, ध्यान और विहार के लिए चुना था. यह कैलास से अलग धरती पर जंगलों के बीच उनका ध्यान केंद्र था.
पार्वती, जो संसार की सबसे दयालु माता हैं उन्होंने इस सूकर बच्चे को अपना लिया. सूकर बड़ा हुआ तो वह विनाशकारी हो गया. तब शिव ने उसे नियंत्रित किया और उसे लोगों की रक्षा करने के साथ ही मधुवन की सुरक्षा के काम में लगा दिया. यह सूकर पंजुरली के नाम से जाना गया.
एक पत्थर से हुआ गुलिगा का जन्म
इसी तरह गुलिगा का जन्म एक पत्थर से हुआ जिसे शिवजी ने ही जल में उतार दिया था. गुलिगा विष्णु की सेवा में पहुंचा और उनके ही आदेश से वह भी प्रकृति के संरक्षण का देवता बना. किवदंती के अनुसार, पंजुरली और गुलिगा में पहले आपसी संघर्ष हुआ, लेकिन देवी के हस्तक्षेप से दोनों में मैत्री हुई और वे दोनों एक-दूसरे के पूरक और संरक्षक बन गए. यह लोककथा शैव और वैष्णवों के बीच पहले संघर्ष और फिर मैत्री को दिखाती है.
तुलुनाडु का भूत कोला उत्सव
दैव या भूत की पूजा वार्षिक भूत कोला उत्सव के दौरान की जाती है, जो तुलु कैलेंडर के अनुसार दिसंबर से मई के बीच मनाया जाता है. इस उत्सव में, एक कलाकार वेशभूषा और मुखौटा शृंगार करके दैव का प्रतिनिधित्व करता है, और तन्मय होकर नृत्य करता है. आत्मा के रूप में, कलाकार एक भविष्यवक्ता, एक न्यायाधीश और एक मुखिया बन जाता है और उनके विवादों का निपटारा भी करता है.
उत्सव में विभिन्न जातियों और समुदायों के स्थानीय लोग भाग लेते हैं और समारोह के दौरान विशिष्ट भूमिकाएं निभाते हैं. उत्सव उस पवित्र भूमि पर होता है जहां देवता का निवास माना जाता है. कर्नाटक और तमिलनाडु में होने वाली नाट्य विधा यक्षगान कुछ-कुछ भूत कोला से ही प्रभावित एक नाट्य शैली सी लगती है.
ग्रामीण भारत में देवताओं का वशीकरण आम बात
किसी पर देवता का आना, उसे वश में कर लेना जैसी घटनाएं सिर्फ भारत के दक्षिणी हिस्से की परंपराओं का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि पूरे देश में ग्रामीण भारत की एक पहचान इन्हीं ग्राम देवताओं, स्थान देवताओं, लोक देवताओं से बनी हुई है. उत्तर के किसी गांव में आप चले जाएं तो गांव की सीमा पर आपको डीह बाबा का स्थान और मंदिर जरूर मिलेगा. ये डीह बाबा गांव के रक्षक देवता ही होते हैं.
कई मंदिर की कहानियों में शामिल हैं जागृत देव
इसी तरह कुछ लोगों पर देवी-देवता आते हैं, ऐसे भी कई किस्से मशहूर हैं, लेकिन आज के दौर में इन्हें सिर्फ अंधविश्वास के तौर पर देखा जाता है. उत्तराखंड के जागेश्वर धाम में जब जागर लगती है तो ढाक बजाने वाले कलाकार पर अक्सर देवता आ जाते हैं. राजस्थान के करौली देवी मंदिर में भगत के वंशजों पर आज भी देवी आती हैं और वहां श्रद्धालु जुटते हैं और देवी का आशीर्वाद लेते हैं.
बिहार के गोपालगंज में थावे माता का मंदिर है. यहां के मंदिर की कथा और मान्यता ही इस आधार पर है कि देवी ने यहां के भगत रहसू भक्त के शरीर से प्रकट होकर दर्शन दिए थे. मंदिर में रहसू भगत का सिर फाड़कर हाथ बाहर दिखाती माता की ही प्रतिमा लगी हुई है. भक्त इनके दर्शन करने पहुंचते हैं और चैत्र की नवरात्रि में बड़ा मेला लगता है.
लोक परंपराओं का हिस्सा है दैव का आगमन
भारत की लोक परंपराओं में पुराण कथाओं से इतर इस तरह के देवताओं की बड़ी मान्यता है और अपने-अपने क्षेत्रों में, समुदाय में उनके पूजन की परंपरा आज भी जीवित है.
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