जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्र का स्तर धीरे-धीरे लेकिन लगातार बढ़ रहा है. एक नई स्टडी के मुताबिक अगर हम जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, तेल) का इस्तेमाल न रोके, तो सदी के अंत तक दुनिया भर में 10 करोड़ से ज्यादा इमारतें पानी में डूब सकती हैं. ये इमारतें तटीय शहरों में हैं, जहां लाखों लोग रहते हैं.
मैकगिल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों की ये स्टडी नेचर अर्बन सस्टेनेबिलिटी जर्नल में छपी है. ये पहला ऐसा रिसर्च है, जिसमें अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया और मध्य-दक्षिण अमेरिका के तटीय इलाकों में इमारत-दर-इमारत खतरा मापा गया. आइए समझते हैं कि ये समस्या क्या है और भारत पर क्या असर पड़ेगा.
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स्टडी में क्या पता चला? छोटी बढ़ोतरी से भी बड़ा नुकसान
वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट नक्शे और ऊंचाई के आंकड़ों से अनुमान लगाया. अगर समुद्र का स्तर सिर्फ 0.5 मीटर बढ़ जाए (जो उत्सर्जन कम करने पर भी हो सकता है), तो करीब 30 लाख इमारतें डूबेंगी. ये बढ़ोतरी उत्सर्जन कटौती के बावजूद संभव है.
अगर उत्सर्जन न रुका और स्तर 5 मीटर या उससे ज्यादा बढ़ गया तो खतरा कई गुना हो जाएगा. 10 करोड़ से ज्यादा इमारतें खतरे में पड़ेंगी. ज्यादातर ये इमारतें घनी आबादी वाले निचले इलाकों में हैं – जैसे पूरे मोहल्ले, बंदरगाह, तेल रिफाइनरी और पुरानी सांस्कृतिक जगहें. ये सब बाढ़ की चपेट में आ जाएंगे.
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स्टडी से जुड़ी प्रोफेसर नताल्या गोमेज कहती हैं कि समुद्र का बढ़ता स्तर जलवायु परिवर्तन का धीमा लेकिन पक्का नतीजा है. ये पहले से तटीय इलाकों को प्रभावित कर रहा है. सदियों तक करेगा. लोग अक्सर 1-2 सेंटीमीटर की बात करते हैं, लेकिन अगर ईंधन जलाना न रुका, तो ये कई मीटर तक पहुंच सकता है.
भारत के शहरों पर क्या असर? मुंबई-चेन्नई सबसे ज्यादा खतरे में
भारत भी इससे बच नहीं पाएगा. एक दूसरी स्टडी के अनुसार अगर उत्सर्जन न रुका तो सदी के अंत तक मुंबई का 21.8% हिस्सा (1,377 वर्ग किलोमीटर) पानी में डूब सकता है. अभी से 830 वर्ग किलोमीटर खतरे में है.
- चेन्नई: अगले 16 सालों में 7.3% (86.8 वर्ग किमी) डूबेगा, सदी के अंत तक 18% (215 वर्ग किमी).
- यानम और थूथुकुड़ी: 2040 तक 10% हिस्सा.
- पणजी और चेन्नई: 5-10%
- कोच्चि, मैंगलोर, विशाखापत्तनम, हल्दिया, उडुपी, पारादीप, पुरी: 1-5% जमीन डूब सकती है.
- लक्षद्वीप: समुद्र 0.4-0.9 मिमी प्रति साल बढ़ रहा. अमिनी द्वीप का 60-70% और चेतलाट का 70-80% हिस्सा नुकसान में.
प्रोफेसर जेफ कार्डिले कहते हैं कि हैरानी है कि थोड़ी सी बढ़ोतरी से इतनी इमारतें प्रभावित होंगी. कुछ देशों पर असर ज्यादा होगा, ये उनकी जमीन की बनावट पर निर्भर करता है.
सिर्फ इमारतें ही नहीं, जिंदगी और अर्थव्यवस्था पर भी खतरा
ये समस्या इमारतों तक सीमित नहीं. लाखों लोग बेघर हो जाएंगे. बंदरगाह डूबने से व्यापार रुकेगा, खाना-पीना महंगा होगा. प्रोफेसर एरिक गैल्ब्रैथ कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन सबको प्रभावित करेगा, चाहे तट पर रहें या न रहें. हमारा खाना, ईंधन सब बंदरगाहों से आता है. अगर वो डूबे, तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था हिल जाएगी. शोधकर्ता माया विलार्ड-स्टीपन जोड़ती हैं कि थोड़ी बढ़ोतरी तो रुक नहीं सकती, लेकिन तटीय इलाके जितनी जल्दी तैयारी करेंगे, उतने सुरक्षित रहेंगे.
अभी से तैयारी शुरू करें
वैज्ञानिकों ने एक इंटरएक्टिव मैप भी बनाया है, जो बताता है कि कौन से इलाके सबसे ज्यादा खतरे में हैं. ये शहर प्लानर्स, सरकारों और लोगों के लिए मददगार है. वे तटीय दीवारें बना सकते हैं. जमीन का इस्तेमाल बदल सकते हैं या जरूरत पर लोगों को सुरक्षित जगह शिफ्ट कर सकते हैं.
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