लगभग पूरी दुनिया में जन्म दर कम हो रही है. इसमें दक्षिण एशियाई देश भारत भी शामिल है. वहीं, बर्थ रेट घटने के बाद भी हमारे यहां ट्विन बर्थ का ग्राफ ऊपर जा रहा है. इसपर हुई स्टडी कहती है कि जुड़वा बच्चों का जन्म नब्बे की शुरुआत में अनोखी बात थी, लेकिन हाल के सालों में ये कॉमन दिखने लगा. यहां तक कि अगले कुछ साल में जुड़वा बच्चों के मामले में भारत सबसे ऊपर हो सकता है.
क्या कहती है रिसर्च
काफी सालों तक ट्विन बर्थ पर अध्ययन अमीर देशों तक सीमित रहे. अब इसमें बदलाव आया है. हाल में जर्मनी और स्वीडन के शोधकर्ताओं ने 39 अपेक्षाकृत कम-आय वाले देशों, जिनमें भारत भी शामिल है, का पैटर्न समझा. इसके लिए साल 1993 से 2021 तक के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) का डेटा लिया गया. इसमें दिखा कि देश में साल 1993 में जुड़वा बच्चों की दर 0.9% थी, जो साल 2021 में 1.5% हो गई. यानी दुनिया के बाकी देशों में भी जुड़वां बच्चों की संख्या बढ़ रही है, और भारत में यह बढ़ोतरी उसी तरह की ट्रेंड का हिस्सा है.
क्यों बढ़ रहे जुड़वा बच्चे
दरअसल जुड़वा बच्चों का होना सेहतमंद होने की निशानी नहीं, बल्कि इसकी अलग वजहें हैं. मसलन, हमारे देश को ही लें तो यहां महिलाएं अब पहले की तुलना में थोड़ी बड़ी उम्र में गर्भवती हो रही हैं. उम्र बढ़ने पर ओवुलेशन की प्रोसेस में बदलाव आता है और कई बार एक समय में दो एग्स फर्टिलाइज हो जाते हैं. अगर दोनों ही एग्ज ठीक तरीके से विकसित हो सके तो जुड़वा बच्चों का जन्म होता है. ये तो हुआ कुदरती कारण, जिससे ट्विन्स की संभावना बढ़ जाती है, लेकिन एक और वजह भी है.

IVF और दूसरे फर्टिलिटी ट्रीटमेंट भी ट्विन बर्थ बढ़ा रहे हैं. आजकल कई कारणों से परिवार बढ़ाने के लिए मेडिकल मदद लेनी पड़ रही है. इन तकनीकों में कभी-कभी दो अंडाणु फर्टिलाइज हो जाते हैं. एक अध्ययन में पाया गया कि मेडिकली असिस्टेड रिप्रोडक्शन की वजह से ही जुड़वां बच्चों की संख्या में 40 से 50 फीसदी तक बढ़त हो सकती है, भले ही मांओं की उम्र ज्यादा न हो. कुछ रोल जेनेटिक्स का भी है. परिवार में पहले से जुड़वा बच्चे हों तब भी ये संभावना ज्यादा रहती है.
पिछले दो दशक में देश में IVF और मेडिकल असिस्टेंस बढ़ा, जिसकी वजह से भी ट्विन बर्थ तेज हो चुकी.
इस चलन पर नजर रखने की जरूरत क्यों
जुड़वां गर्भधारण सिर्फ मेडिकल तौर पर जटिल नहीं, बल्कि इनका पब्लिक हेल्थ पर भी बड़ा असर होता है. हार्वर्ड टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, कोरिया यूनिवर्सिटी और भारत से इंस्टीट्यूट ऑफ इकॉनॉमिक ग्रोथ ने मिलकर पाया कि भारत में भले ही ट्विन बर्थ बढ़ी हो, लेकिन ट्विन बर्थ रेट में गिरावट आ रही है. पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौतों में जुड़वां बच्चों का हिस्सा 7.7% था, जबकि जन्मदर उतनी ज्यादा नहीं. वैसे वक्त के साथ मौत की दर कम हुई है, लेकिन कुल मृत्युदर को देखें तो ये अब भी ज्यादा है. साइंस कहता है कि जुड़वां बच्चों की मौत का खतरा सिंगलटन की तुलना में 7.5 गुना ज्यादा रहता है.
शोध में यह भी पाया गया कि जुड़वां बच्चों की बचने की संभावना सीधे परिवार की आर्थिक स्थिति से जुड़ी है. गरीब परिवारों के बच्चे ज्यादा जोखिम में होते हैं. यानी उनपर अलग से ध्यान देने की जरूरत है.

जुड़वा बच्चों का अलग रजिस्ट्रेशन किसलिए जरूरी
इस पैटर्न को देखते हुए हार्वर्ड जोर दे रहा है कि भारत में भी इसकी शुरुआत हो. इससे कमजोर तबके के बच्चों और मांओं को ज्यादा बेहतर मदद मिल सकेगी. साथ ही इससे कई बायोलॉजिकल रहस्य भी सुलझाए जा सकते हैं. कई देशों में ट्विन रजिस्ट्रीज होती हैं. अब भारत में इसका ऊंचा ग्राफ देखते हुए यहां भी इसकी जरूरत महसूस हो रही है. इससे हेल्थ पॉलिसी में बदलाव हो सकते हैं. साथ ही जेनेटिक्स पर रिसर्च हो सकती है कि इन बच्चों को कब ज्यादा जोखिम रहता है.
किन जगहों पर ट्विन रजिस्ट्री
– स्वीडन में जुड़वा बच्चों का रजिस्ट्रेशन साल 1960 में शुरू हुआ था. इसमें लगभग दो लाख जुड़वा बच्चे और वयस्क शामिल हैं.
– डेनमार्क में पचास के दशक में ही शुरुआत हो चुकी थी. यहां फिलहाल एक लाख से कम ट्विन्स रजिस्टर्ड हैं.
– ऑस्ट्रेलिया में भी ये काम शुरू हो चुका. और अब तो वहां जेनेटिक्स पर रिसर्च भी हो रही है.
– अमेरिका में अलग-अलग राज्य इसका रिकॉर्ड रखने लगे हैं.
– चीन नेशनल ट्विन रजिस्ट्री कर रहा है, साथ ही एयर पॉल्यूशन के जुड़वा बच्चों पर असर पर रिसर्च भी हो रही है.
– ईरान में सबसे हाल-हाल में इसपर काम शुरू हुआ.
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