Crime Katha Bihar Special: बिहार में विधानसभा चुनाव का ऐलान हो चुका है. चुनावी मैदान में सत्ता और विपक्ष एक दूसरे के सामने अपनी ताकत दिखाने के लिए किसी योद्धा की तरह तैयार हैं. एक दौर था जब बिहार ऐसा नहीं था. वहां आतंक का राज दिखता था. विधान सभा चुनाव के मद्देनजर हम आपके लिए लेकर आए हैं बिहार से निकली जुर्म की वो कहानियां, जो आज भी दिल दहला देती हैं. ‘बिहार की क्राइम कथा’ सीरिज के तहत आपके लिए पेश है, सूबे में सामूहिक हत्याकांड की वो कहानी, जिसने करीब दो दशक से ज्यादा वक्त तक बिहार को दहला कर रखा.
70 का दशक खत्म होने को था. बिहार की धरती जैसे किसी अघोषित युद्धभूमि में बदल गई थी. खेतों की मिट्टी में खून मिल चुका था, और फिजा में घुली थी बदले की हवा. एक तरफ माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) के लोग हथियार उठाए बैठे थे, जो गरीबों, दलितों और भूमिहीनों की आवाज बन चुके थे. दूसरी तरफ थे ऊंची जाति के जमींदार, जिनका खेतों और सत्ता पर कई पीढ़ियों से कब्ज़ा था. वे माओवादियों की बगावत को अपने ‘राज’ पर हमला मानते थे. यही वजह है कि उस दौर में बिहार कई इलाकों का नाम सुनते ही कोई न कोई सामूहिक हत्याकांड याद आ जाता था.
बारा, बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, सेनारी, मियांपुर… हर घटना जैसे एक-दूसरे का जवाब थीं. बदला थी. यह जवाब कभी अदालतों में नहीं, रात के अंधेरे में गोलियों से दिया जाता था और बिहार की जमीन जहां तहां खून से लाल हो जाती थी.
साल 1977 – बेलछी से भड़की थी चिंगारी
देश की राजनीति में वो इंदिरा गांधी का दौर था. बिहार की राजधानी पटना से करीब 60 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा गांव था बेलछी. जहां 17 मई 1977 की रात गांव में कयामत उतर आई थी. पूरा गांव जब गहरी नींद में सो रहा था, तभी कुछ दबंग लोग हथियारों के साथ उस गांव में दाखिल हो गए. उन्होंने चुन चुनकर कुछ घरों में दस्तक दी और लोगों को बाहर खींच लिया. चीख पुकार मच गई. गांव के लोग कुछ समझ नहीं पा रहे थे. सही कहें तो उन्हें समझने का वक्त भी नहीं मिला. हमलावरों ने गांव के 11 दलित मजदूरों को ज़िंदा आग के हवाले कर दिया. आधी रात में वहां कोहराम मच गया. जिंदा जलते लोगों की आह सन्नाटे को चीर रही थी. औरतों और बच्चों के रोने और चीखने की आवाज़े माहौल में दर्द पैदा कर रही थीं.
मौत की रात गुजर चुकी थी. अगली सुबह गांव में राख हो चुके इंसानों की अधजली लाशें पड़ी थीं. वहां का मंजर इस बात की गवाही दे रहा था कि उस रात गांव में आतंक का नंगा नाच हुआ था. ये सामूहिक हत्याकांड पूरे देश में चर्चा की वजह बन गया. सियासी गलियारों में भी गहमा गहमी कम नहीं थी. तब इंदिरा गांधी खुद मौका-ए-वारदात पर पहुंची थीं. वो वहां जाकर मिट्टी पर बैठीं और देर तक रोती औरतों को सांत्वना देती रहीं. दरअसल, ये सब कुर्मी जमींदारों और दलित खेतिहर मजदूरों के बीच ज़मीनी झगड़े का नतीजा था. यही झगड़ा जातीय नफरत में बदल गया. उस पल से बिहार में जाति बनाम जाति की कहानी शुरू हो गई थी.
साल 1987 – दलेलचक-बघौरा में नक्सली बदले की दस्तक
वो 10 जून 1987 की रात थी. बिहार के गया जिले में हालात ये बन चुके थे कि अराजकता बढ़ती जा रही थी. बघौरा गांव में सन्नाटा पसरा था. अचानक उसी सन्नाटे में कहीं से भीड़ की शक्ल में ना जाने तमाम लोग आ धमके. गांव के चारों ओर बंदूकें चमकने लगी थीं. दरअसल, ये सब लोग माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) के हथियारबंद दस्ते के सदस्य थे. उनका निशाना था बघौरा गांव का राजपूत समुदाय. इसके बाद गांव में खून की होली खेली गई. मंजर खौफनाक था. हमलावरों घरों से निकालकर लोगों को खेत में ले गए. पहले उनके साथ जमकर मारपीट की गई और फिर बेरहमी से काट डाला गया. गोली मारी गई. गांव के मर्द, औरतें और यहां तक कि बच्चे भी. किसी को नहीं बख्शा गया. हमलावरों की वहशत जब थमी तो खेतों की जमीन खून से लाल हो चुकी थी.
नतीजा ये हुआ कि कुछ घंटे बाद 42 लोगों की लाशें खेतों में बिखरी पड़ी थीं. यह सिर्फ एक नरसंहार नहीं था, बल्कि एक एलान था, ‘अब ज़ुल्म का जवाब हथियार से मिलेगा.’ गांव की बूढ़ी औरतों ने सुबह ये मंजर देखा तो कहा, ‘हमने खून का तालाब देखा है बेटा, अब डर भी खामोश हो गया है.’ इस सामूहिक हत्याकांड ने आने वाले दशक के लिए एक वहशतभरा रास्ता तय कर दिया था. बदले का रास्ता.
साल 1994 – रणवीर सेना का उदय
वक्त का पहिया आगे बढ़ता गया. माओवाद का असर अपना रंग दिखा रहा था. 1990 के दशक के बीच तक, बिहार का गांव-गांव लाल झंडों से भर गया था. नक्सली संगठन MCC और PWG गरीब, दलित और पिछड़े तबके में लोकप्रिय हो चुके थे. उसका असर नौजवानों के सिर पर भी चढ़ने लगा था. वे सब एकजुट होते जा रहे थे. नतीजतन भूमिहार और राजपूत जमींदार अब असुरक्षित महसूस करने लगे थे. उसी डर और खौफ के चलते उस दौर में भूमिहार किसानों ने एक निजी सेना बनाई. नाम रखा – रणवीर सेना. ये नाम दरअसल रणवीर बाबा से लिया गया था, जो भूमिहार समुदाय के लोकदेवता माने जाते हैं.
रणवीर सेना के गठन का मकसद था – नक्सलवादियों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना. कहने को ये सेना रक्षा के लिए बनाई गई थी, लेकिन जल्द ही रणवीर सेना खुद आतंक का पर्याय बन गई. क्योंकि हर इलाके हर गांव में उनका एक ही संदेश था – ‘जो हमारे खिलाफ है, वह मारा जाएगा.’
साल 1992 – बारा नरसंहार, MCC का सवर्णों पर वार
रणवीर सेना बन जाने के बाद माओवादी ठान चुके थे कि अब ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा. एमसीसी इस बात से खौफजदा हो जाने की बजाय आक्रामक तेवर अपना रही थी, जिसका नतीजा उस वक्त बिहार के गया जिले में देखने को मिला. 12-13 फरवरी 1992 की रात थी. रात के 10 बज चुके थे. लोग सोने के लिए जा चुके थे. बारा गांव में सन्नाटा पसरा था. तभी MCC के करीब 100 नक्सलियों ने बारा गांव को चारों तरफ से घेर लिया. फिर वही हुआ जो पहले भी हो चुका था. लोगों को घरों से निकाला गया. बाहर खींचा गया. मर्द क्या औरत क्या बच्चों पर भी रहम नहीं किया गया. जिस जिसने उनका विरोध किया, नक्सलियों ने वहीं उनका गला रेत दिया.
तेजधार हथियारों से हमलावरों ने एक नहीं दो नहीं बल्कि 35 से 40 भूमिहारों की जान ले ली. मंजर ये था कि बारा गांव में खेतों के किनारे लाशें बिछी हुई थीं, और पूरे गांव में सिर्फ सिसकियां गूंज रहीं थीं. इस सामूहिक हत्याकांड के बाद MCC ने कहा था, ‘यह न्याय है, बदला नहीं. अब राज उन्हीं का होगा, जो खेत जोतते हैं.’ लेकिन हकीकत तो ये थी कि यह बदले की शुरुआत थी.
साल 1996 – बदले की आग में जला बथानी टोला
MCC ने जो नरसंहार किया था, उसे चार साल बाद रणवीर सेना ने और भयानक तौर पर दोहराया. भोजपुर जिले के बथानी टोला गांव में उस रात कयामत आने वाली थी. 11 जुलाई 1996 का दिन था. सब कुछ रोज की तरह चल रहा था. लेकिन शाम ढलते ही लगभग 200 हथियारबंद लोग गांव बथानी टोला में दाखिल हो गए. उनके चेहरों पर नकाब थे और हाथों में रायफलें. वो गुस्से में भरे थे. साफ था कि उनका एक ही मकसद था- बदला.
रणवीर सेना के हमलावरों ने कुछ नहीं देखा. बस बथानी टोला गांव के घरों से लोगों को निकालकर गोली मार दी गई. पूरा गांव गोलियों की आवाज़ से गूंजता रहा. जब कुछ ही मिनटों में ये आवाज़ थमी तो 21 बेजान जिस्म जमीन पर पड़े थे. मां के सामने बच्चे मारे गए. एक औरत को उसके नवजात के साथ जिंदा जलाया गया. इस हमले की खास बात ये थी कि इस हमले का शिकार दलित, मुसलमान और मजदूर – सब बने.
रणवीर सेना के हमलावरों का संदेश साफ था, ‘यह बारा का बदला है.’ उस रात बिहार ने देखा कि बदला जातियों में बदल चुका था. दलित और सवर्ण अब एक-दूसरे के दुश्मन नहीं, बल्कि हत्यारे बन चुके थे. खूनी खेल जारी था.
साल 1997 – लक्ष्मणपुर बाथे में कत्ल-ए-आम
बिहार का अरवल उस वक्त जहानाबाद हुआ करता था. रणवीर सेना और एमसीसी के बीच दुश्मनी की खाई गहरी और लंबी होती जा रही थी. वो 1 दिसंबर 1997 की चांदनी रात थी. उस सर्द रात में लोग गहरी नींद सो चुके थे. यही वो वक्त था, जब रणवीर सेना के सशस्त्र दस्ते गांव में उतर आए. उसके बाद गांव में कुछ घंटों मौत वही खूनी खेल खेला गया, जो पहले भी खेला गया था. रणवीर सेना के हमलावरों पर बदले का ऐसा जुनून सवार था कि उन्होंने मर्दों के साथ-साथ गर्भवती महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों – किसी पर भी तरस नहीं खाया.
इस हमले के दौरान कुछ ही घंटों में 58 बेगुनाह दलितों की बेरहमी से हत्या कर दी गई. खेतों की मेड़ पर पड़ा खून, जलते घर और सुबह तक पूरे इलाके में पसरा मौत का सन्नाटा. यह सामूहिक हत्याकांड इतना भयानक था कि बाद में इसे “राष्ट्रीय शर्म” कहा गया. असल में रणवीर सेना का मकसद था कि नक्सल समर्थक गांववालों में इतना डर पैदा करो, कि कोई MCC की तरफ ना जाए. सही कहें तो बदले की इस आग ने रणवीर सेना को खूनी जल्लाद बना दिया था.
साल 1999 – शंकर बिगहा में फिर वही कहानी
बिहार के जहानाबाद में 25 जनवरी 1999 की वो सर्द रात थी. ठंड ऐसी थी कि शंकर बिगहा के गांववाले रजाई में दुबके थे. कई लोग गहरी नींद में सो चुके थे. लेकिन तभी अचानक गोलियों की आवाज से पूरा गांव दहला उठा. दरअसल, गांव में गोलीबारी करने वाला कोई और नहीं, बल्कि रणवीर सेना के दस्ते थे. दो एक बार फिर खूनी खेल खेलने आए थे. और इस बार निशाने पर था- शंकर बिगहा गांव.
रणवीर सेना के हमलावरों ने पहले की तरह किसी को नहीं छोड़ा- ना बूढ़े, ना बच्चे. उस खूनी वारदात के बाद गांव की एक औरत ने कहा था, ‘उन्होंने नाम नहीं पूछा, जात पूछी और गोली चला दी.’ असल में इस घटना ने बिहार की आत्मा तक को हिला कर रख दिया था, 22 दलित मारे गए थे. लाशें गांव में बिखरी थीं. हर तरफ वही मातम का मंजर था. चीख पुकार थीं. लेकिन बदले का चक्र टूटा नहीं था.
साल 1999 – सेनारी में MCC का प्रतिशोध
शंकर बिगहा के जख्म अभी तक भरे नहीं थे. एमसीसी को बदला लेना था. 18 मार्च 1999, यानी सिर्फ दो महीने बाद MCC के हमलावरों ने सेनारी गांव में धावा बोल दिया. हमलावर गांव में अल सुबह दाखिल हुए. फिर जानवरों की तरह खींचकर करीब 40 लोगों को गांव से बाहर ले जाया गया. फिर उन्हें तीन टीमों में बांट दिया गया. सबको कतार में एक साथ खड़ा किया गया और बारी-बारी उनका गला काट दिया गया और उनके पेट चीर दिए गए. नतीजा ये हुआ कि उनमें से 34 लोग मौके पर ही मर गए. जबकि कुछ लोग वहां पड़े तड़प रहे थे. मारने वालों में इतनी नफरत और गुस्सा भरा था कि वे एक एक कर सबको मारते गए. ना कुछ सुना ना कुछ कहा.
जब भी किसी की गर्दन पर तेजधार हथियार चलता खून की धारा बह पड़ती. चीख पुकार मातम. वही खौफनाक मंजर था. रहम और दया जैसे महज किताबी लफ्ज थे. किसी को भी नहीं छोड़ा. सबकी जान ले ली. सेनारी गांव भूमिहारों का था. पटना हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार पद्मनारायण सिंह भी सेनारी के रहने वाले थे. वारदात के अगले दिन वो गांव पहुंचे और जब अपने परिवार के 8 लोगों की कटी फटी लाशें देखी तो उन्हें दिल का दौरा पड़ गया और उनकी जान चली गई.
34 लोगों का खून करने के बाद हमलावरों ने चिल्लाकर कहा, ‘यह शंकर बिगहा का बदला है!’ जिंदा बचे लोगों ने बताया कि सेनारी की वह सुबह किसी युद्ध के मैदान जैसी थी, जहां इंसान ने इंसानियत को मार दिया था. यह हमला MCC के इतिहास में सबसे बड़ा बदला कहा जाता है.
साल 2000 – मियांपुर में बदले के अंत?
एमसीसी और रणवीर सेना की खूनी जंग को 23 साल का वक्त बीत चुका था और ये जंग थमी नहीं थी. बिहार के औरंगाबाद में 16 जून 2000 का दिन था. गांव था मियांपुर. जहां रणवीर सेना ने एक बार फिर हमला किया था. इस बार निशाने पर थे यादव और दलित समुदाय के लोग, जिन्हें MCC समर्थक माना गया था. वही पुराना तरीका. गांव को चारों तरफ से घेरना. लोगों को घरों से खींचना. फिर मारपीट. कतार में खड़ा करके काटा गया. गोली मारी गई. ये सब औरतों और बच्चों के सामने किया गया. विरोध करने वाले भी शिकार बने.
कुल मिलाकर रणवीर सेना ने 35 लोगों को मार डाला. गांव में सन्नाटा और मातम पसरा था. पुलिस सुबह तक गांव में पहुंची. रणवीर सेना ने कहा कि यह हमला सेनारी नरसंहार का जवाब था.
खूनी खेल का खात्मा
मगर यही वो दौर था कि इस खूनी खेल का सिलसिला थमने लगा था. इसकी एक वजह यह भी थी कि बिहार में राजनीतिक बदलाव आया था. जिसका असर एमसीसी और रणवीर सेना पर भी हुआ. नीतीश कुमार के शासन में इन दोनों संगठनों की कमर तोड़ दी गई. बिहार संविधान और शांति की तरफ लौटने लगा था. साल 2000 के बाद बिहार ने बहुत कुछ देखा. नक्सलवाद कमजोर पड़ गया. रणवीर सेना पर प्रतिबंध लगा दिया गया. लेकिन पीड़ितों के गांव आज भी अपने मारे गए लोगों के नाम गिनते हैं.
कई मामलों में अदालतों ने सबूतों के अभाव में आरोपियों को बरी कर दिया. कुछ नेताओं ने इसे राजनीतिक हथियार बनाया, तो कुछ ने इसे भुला दिया. पर उन गांवों की मिट्टी अब भी जानती है, कहां किसका खून गिरा था. उस बदले की हिंसा से बचा हुआ एक शख्स कहता है- “हम तो भूलना चाहते हैं, पर मिट्टी भूलने नहीं देती.”
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