जिस संगठन को अपने दम पर खड़ा किया हो, तमाम बाधाएं पार कर, गृहस्थ जीवन का त्याग कर जिसे जन-जन तक पहुंचाया हो, लोगों में इतना विश्वास जगाया हो कि वो अपनी संतान तक संगठन को देने को तैयार हुए, उसी संगठन यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पद से डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने त्यागपत्र दे दिया था. सवाल है कि आखिर ऐसी नौबत आई क्यों? इस सवाल के जवाब में उन बड़े सवालों के जवाब भी मिल जाते हैं, जो आज भी संघ की ओर उछाले जाते हैं जैसे संघ ने स्वतंत्रता की लड़ाई में क्या किया? संघ ने कांग्रेस या गांधीजी के किसी आंदोलन को समर्थन क्यों नहीं दिया?
डॉ हेडगेवार अनुशीलन समिति के साथ मिलकर पूरी तरह क्रांतिकारी गतिविधियों में उतरने जा रहे थे. लेकिन बाद में अपने आप को उन्होंने सीमित कर लिया. इसके पीछे उनकी सोच थी कि ये लड़ाई जेल या फांसी पर खत्म नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये लम्बी लड़ाई है. लड़ाई देश को उसका खोया हुआ वैभव वापस दिलाने की और आजादी उसका पहला पड़ाव है. ऐसे में कांग्रेस में इतना आगे तक बढ़ जाने के बावजूद खिलाफत आंदोलन, मोपला दंगा जैसे मुद्दों पर उनके मतभेद बढ़े तो वो अपना संगठन शुरू करने में जुट गए.
कांग्रेस और संघ में एक बड़ा फर्क था. कांग्रेस को कई बड़े अंग्रेजों ने शुरू करवाया था. दूसरे अधिवेशन में तो डिनर ही गवर्नर जनरल ने दिया था. कई अध्यक्ष ही अंग्रेज रहे थे और सालों तक कांग्रेस साल में एक बार मिलने वाला संगठन ही रहा, यानी 28-30 संगठनों का एक मंच जिसमें पहले दिन से ही दिग्गज नेताओं की फौज थी. जबकि संघ में कई साल बाद तक डॉ हेडगेवार जैसा दूसरा बड़ा नेता नहीं जुड़ा.
जब गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत दांडी मार्च का ऐलान किया तो उनके साथी ही हैरान थे. हैरान डॉ हेडगेवार भी थे लेकिन उनकी वजह दूसरी थी. दरअसल संघ के तमाम स्वयंसेवक अखबारों में आई गांधीजी के आंदोलन की खबरों से बैचेन हो रहे थे. डॉ हेडगेवार ने उन दिनों सभी शाखाओं में एक सर्कुलर भेजा, जिसका सार था कि आंदोलनों में कोई भी स्वयंसेवक वैयक्तिक तौर पर हिस्सा लेने के लिए स्वतंत्र है. संघ का मानना है कि देश में आजादी या सामाजिक लड़ाई के लिए लड़ रहे आंदोलनों को संघ का वैचारिक समर्थन रहेगा. लेकिन संघ किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लेगा. अगर आप आज भी गौर करेंगे तो पाएंगे कि संघ आज भी अपने नाम से किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लेता. हां उसके स्वयंसेवक उन आंदोलनों का हिस्सा हो सकते हैं जैसे राम जन्मभूमि से लेकर अन्ना आंदोलन तक में संघ का समर्थन माना जाता रहा है. ऐसे में उस सर्कुलर में लिखा था कि जो स्वयंसेवक गांधीजी के आंदोलन में हिस्सा लेना चाहे वो सरसंघचालक से अनुमति लेकर जा सकता है.
दिलचस्प बात ये भी है कि गांधीजी ने जब दांडी मार्च का ऐलान किया तब खुद नेहरू पिता-पुत्र इस फैसले से सहमत नहीं थे. राजमोहन गांधी ने अपनी किताब ‘Mohan Das, A True Story of a man, his people and an Empire’ में लिखा है, ‘On 5 March, from the Ashram Prayer Ground, Gandhi made the first public announcement about the choice of salt. His Political colleagues were shocked, Neither Jawahar Lal Nehru nor his father was impressed’. गांधीजी जनता की नब्ज समझते थे, वो जनता को जोड़ना जानते थे, इसलिए शुरूआत में वो जिस किसी कार्यक्रम का भी ऐलान करते थे, सभी को अजीब लगता था कि नमक बनाने से आजादी कैसे मिलेगी. बाद में दांडी मार्च का जो असर देश भर में और देसी विदेशी मीडिया में दिखा तो नेहरू को लगा भी कि वो गलत थे. खुद नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि, ‘’I felt a little abashed and ashamed for having questioned the efficacy of this method when it was proposed first by Gandhiji.’’
इधर डॉ हेडगेवार ने सैकड़ों स्वयंसेवकों को इस आंदोलन में हिस्सा लेने की अनुमति दी. हालांकि उन दिनों ओटीसी शिविर चल रहे थे, सो कइयों को उनके पूरा होने तक रोका गया. एक दिलचस्प सवाल वो जरूर पूछते थे कि “दो साल इस आंदोलन में जेल जाने के लिए तैयार हो, इतना ही समय संघ को दे दो तो वो कितनी तेजी से बढ़ जाएगा, कभी सोचा है?” इधर अप्पा जी जोशी जैसे विदर्भ के इतने बड़े चेहरे ने भी डॉ हेडगेवार से आंदोलन में जाने की अनुमति मांगी तो भी डॉ. हेडगेवार हैरान थे. यूं भी हेडगेवार का लक्ष्य बड़ा था, उन्हें हर समय बस वही दिखाई देता था. उन्हें अप्पाजी के पत्र पर ओटीसी शिविर के बाद बात करने को कहा. अप्पाजी ने ओटीसी के बाद दोबारा पत्र लिखा तो डॉक्टर साहब ने जवाब दिया कि मैं भी आपके साथ इस आंदोलन में भाग लूंगा. असहमति के बाद नेहरू पिता-पुत्र भी दांडी मार्च के रास्ते में गांधीजी से मिलने आए थे.
लेकिन ड़ॉ हेडगेवार पूरी तरह जेल जाने का मन बना चुके थे. वो इस आंदोलन में रस्मी तौर पर नहीं उतरना चाहते थे. असहयोग आंदोलन में वो पहले भी जेल जा चुके थे. लेकिन 3 महीने बाद दांडी जाकर नमक कानून तोड़ना किसी को जम नहीं रहा था. चर्चा हुईं तो पता चला कि अप्पाजी और उनके दोनों के परिचित और तिलक के अनुयायी माधवराव अणे ने हाल ही में एक जंगल सत्याग्रह का ऐलान किया था.
मध्य प्रांत की सरकार ने 1618 वर्ग मील के जंगल को 1917 में प्रतिबंधित घोषित कर दिया था. ना चारा काटा जा सकता था, ना ही लकड़ी, कई कारोबार, पशुपालन और जंगल पर निर्भर रहने वाले हजारों लोग परेशान हो गए. उसके खिलाफ ये आंदोलन एक तरह से अंग्रेजी सरकार के खिलाफ सविनय अवज्ञा का ही एक रूप था.
गुरुपूर्णिमा के दिन त्यागपत्र और चुने गए नए सरसंघचालक
डॉ हेडगेवार ने ऐलान कर दिया कि वो ‘जंगल सत्याग्रह’ आंदोलन को समर्थन देंगे और उस जंगल में जाकर खुद घास काटेंगे. नागपुर के काम को देखने के लिए उन्होंने बाला साहेब आप्टे और बापूराव भेडी को नियुक्त किया और अपनी गैरमौजूदगी में सरसंघचालक चुने डॉ परांजपे. इस ऐलान के लिए दिन चुना गया 12 जुलाई 1930 का, जिस दिन संघ का गुरु पूर्णिमा उत्सव था. इस मौके पर उन्होंने कहा कि, जैसे ही मैं इस मंच से उतर जाऊंगा, सरसंघचालक नहीं रहूंगा”. डॉ हेडगेवार ने फिर से स्पष्ट किया कि हमारे स्वयंसेवक स्वतंत्रता व सामाजिक मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों में हिस्सा लेते रहे हैं और उसी वजह से हम भी गांधीजी के इस आंदोलन में भाग ले रहे हैं.
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14 जुलाई को वो कई स्वयंसेवकों और अप्पाजी के साथ वर्धा के लिए रवाना हुए, सैकड़ों स्वयंसेवक छोड़ने गए. तय हुआ कि ड़ॉक्टर हेडगेवार 21 जुलाई को जंगल से जुड़े इस गलत कानून को तोड़ेंगे. जब वो यवतमाल पहुंचे तो तमाम स्वयंसेवक अपने घर तार भेजने लगे कि गणवेश (संघ की यूनीफॉर्म) भिजवा दीजिए. फिर हेडगेवार ने उन्हें रोका और कहा कि इस आंदोलन में संघ भाग नहीं ले रहा है. हम स्वयंसेवक के तौर पर आंदोलन को समर्थन कर रहे हैं, सो गणवेश में नहीं जाएंगे. संघ के स्वयंसेवक आज भी आपदा में तो गणवेश पहनकर आते हैं, लेकिन आंदोलनों में नहीं.
21 जुलाई 1930 को 10 हजार लोगों की भीड़ मौजूद थी. ये यवतमाल से 10 किमी दूर लोहारा जंगल के एक गांव में जुटे थे. पुलिस ने हेडगेवार और साथियों को चेतावनी दी, लेकिन वो जंगल कटाई में जुटे रहे, भीड़ वंदेमातरम और भारत माता की जय के नारे लगाती रही. आखिर में पुलिस ने जंगल कानून तोड़ने के जुर्म में सभी को गिरफ्तार कर लिया. डॉ हेडगेवार को 9 महीने के सश्रम कारावास और बाकी साथियों को 4 महीने की सजा सुनाई गई.
उनकी गिरफ्तारी के विरोध में भी कई जगह प्रदर्शन हुए, फिर कई अधिकारी और कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए और जब तक हेडगेवार बाहर नहीं आ गए, ना जाने कितने संघ स्वयंसेवक जेल पहुंच गए. लेकिन दिलचस्प बात ये है कि सबने गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन से खुद को जोड़ा, पुलिस की फाइलों में संघ का नाम भी नहीं आया. सभी जगह ये सारे आंदोलन, प्रदर्शन कांग्रेस के आंदोलन के तौर पर ही गिने गए. इनमें एक आंदोलन उन दिनों सावरकर की किताबों पर लगाए गए प्रतिबंध के विरोध में भी था.
रिहाई के बाद ऐसे हुआ भरत मिलाप
14 फरवरी 1930 को डॉ हेडगेवार रिहा हुए. अकोला और वर्धा में उनकी शोभायात्राएं निकाली गईं, जिनमें अनेक कांग्रेसी नेता कार्यकर्ता भी शामिल हुए. नरेन्द्र सहगल अपनी किताब ‘डॉक्टर हेडगेवार, संघ और स्वतंत्रता संग्राम’ में 17 फरवरी 1930 को नागपुर में उनके भव्य स्वागत के बारे में लिखते हैं कि, “नागपुर के हाथीखाना मैदान में एक स्वागत सभा हुई, जिसमें डॉ परांजपे ने सरसंघचालक पद की धरोहर वापस डॉक्टर जी को सौंप दी. ये भावुक दृश्य ऐसा था मानो भगवान राम के वनवास के बाद वापस अयोध्या लौटने पर उनके भ्राता भरत ने श्रीराम की धरोहर ‘खड़ाऊं’ को वापस करके अयोध्या के सिंहासन पर उनको विराजमान कर दिया हो”.
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