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क्या सत्तापक्ष पर प्रशांत किशोर का आक्रामक रहना तेजस्वी के लिए चिंता का सबब है? – Prashant Kishor aggression against the ruling party a cause of concern for Tejashwi ntc


बिहार विधानसभा चुनाव की जवाबी कव्वाली में एक तीसरा चेहरा मंच पर उतर आया है. वो ख़ुद को सूत्रधार बताता है. उसकी बातें और प्रचार विन्यास उसके सूत्रधार होने की मुनादी भी करती हैं. लेकिन सूत्रधार नया है और क़व्वाल पुराने. ऐसे में मंच पर शोर या गुलाटी कितनी भी हों, साबित और स्थापित होने में तो वक्त लगता ही है. दोनों जवाबी क़व्वाल इस सूत्रधार को ठीक वैसे ही देख रहे हैं जैसे घर के किसी समारोह में ऑर्केस्ट्रा का माइक लेकर कोई उत्साही सुर लगाने की कोशिश करे. उसे तुच्छ हंसी के साथ कलाकार देखते हैं. ताकि प्रोत्साहन भी हो और कलाकार तो कलाकार ही होता है, यह धारणा भी जमी रहे. आख़िर अपने पेट पर लात कौन मारना चाहता है.
 
बिहार वजूद और सामाजिक न्याय की लड़ाई से बीस बरस पहले विकास के नारे पर शिफ्ट हुआ. एक तरह की राजनीति को पिछली सीट पर बैठाकर लोगों ने विकास चुना. इस विकास और सुशासन का पहिया मौसम और ज़रूरत के हिसाब से कभी दाएं तो कभी बाएं रास्ते पर चलता रहा. ड्राइविंग ऐसे ही होती है. जब बाईं ओर गड्ढे आने लगें तो दाहिने हो जाओ और जब दाहिनी ओर कोई चुनौती दिखे तो बाएं से निकल लो. कुल मिलाकर गाड़ी चलती रहनी चाहिए. राजनीतिक भाषणों में इस गाड़ी को विकास का पहिया बताया गया. 
 
पिछली सीट वाले कभी ड्राइवर थे. उनको को-पायलट होना स्वीकार नहीं है. मइया, मैं तो चंद्र खिलौना लैहों वाली ज़िद से वो निकल नहीं सके. उनके पास नंबर हैं और समीकरण हैं. लेकिन उनके पास विरासत में केवल जाति और संप्रदाय नहीं आए… साथ आईं ऐसी तस्वीरें जो बिहार अब नहीं चाहता. अब भी वही होगा इसकी कोई अनिवार्यता नहीं. लेकिन नहीं होगा, इसकी गारंटी पर यकीन करने को लोग तैयार नहीं. दांतों को कितना भी धो लीजिए, कुछ दाग गहरे होते हैं, जाते नहीं. अतीत का कत्था दांतों की सफेदी हर लेता है. रगड़ने से मसूड़े घायल और सफेदी लौटती नहीं.
 
और अब सूत्रधार. प्रशांत किशोर पूरे ज़ोर-शोर से चुनाव के मैदान में हैं. मेहनत कर रहे हैं. मेहनत करना और मेहनत को मेहनत से दिखा पाना उन्हें अच्छे से आता है. 2014 में उन्होंने ऐसा कर दिखाया था. इसके बाद एक जगह में दो मैनेजर नहीं रह सकते वाली स्थिति आ गई. नतीजतन एक्सपेरिमेंटेटिव न्यूकमर को जाना पड़ा. पर प्रयोगधर्मिता रुकी नहीं. अलग अलग ब्रांड की गाड़ियों को अलग-अलग सड़कों पर वो अपने स्टाइल और कौशल से चलाते रहे. जहां सफल हुए, उनकी पीठ थपथपाई गई. जहां नहीं हुए, वहां तो खैर गाड़ी का दोष था ही.
 
तो मेहनत हो रही है. बिहार में. प्रशांत किशोर जुटे हुए हैं. क्यों जुटे हैं? क्योंकि यह इक्कीसवीं सदी है. वैश्विक पूंजीवाद का दौर. यह दौर सबको सपने देता है. सपनों के सफल हो पाने की गुंजाइश भी. सपने देखने में बुराई नहीं. कोशिश कीजिए तो सफल भी हो जाते हैं. दिल्ली मॉडल से बड़ा उदाहरण क्या होगा. एक आदमी टैक्स की पर्ची काटते काटते टैक्स देने वालों की आवाज़ सुनने लगा. फिर उसी आवाज़ में बोलने लगा. बोलने वाले के पास अगर सपने हों तो लोग उसे नेता मान लेते हैं. इसको भी मान लिया. फिर नेता ने विशाल वृक्षों के पतन से खाली ज़मीन पर सपनों के फूल बो दिए. राजनीतिक भाषा में इसे मुख्यमंत्री का दफ़्तर कह सकते हैं. तो सारथी अगर महारथी होने का सपना देखे, इसमें बुराई क्या है भला.
 
हमलावर प्रशांत, बाकी क्यों शांत?
 
शांत वांत कोई नहीं है. सब बोल रहे हैं. कोई ज्यादा कोई ठीकठाक. हां, प्रशांत के ख़िलाफ़ नहीं बोल रहे हैं. एक भीतर के सज्जन ने बताया कि भाजपा की बिहार प्रचार सेल को निर्देश दिए गए थे कि प्रशांत किशोर पर हमलावर नहीं होना है. व्यक्तिगत नहीं होना है. जितना हाथ रखना है, सँभालकर रखना है. ऐसा ही हाल आरजेडी और कांग्रेस का है. सँभलकर बोल रहे. अपना गोलपोस्ट बदलना नहीं चाहते. अतिरिक्त फुटेज नहीं मिले पीके को, इसका पूरा ध्यान रखा जा रहा है. टिप्पणियां हैं लेकिन हल्की-फुल्की. पलटवार है लेकिन मीठा मीठा. इससे उलट प्रशांत किशोर हमलावर हैं. दोनों ओर. लेकिन इंडिया वालों पर कम, एनडीए वालों पर ज़बरदस्त. उन्होंने उपमुख्यमंत्री और भाजपा के चेहरे सम्राट चौधरी को हर तरह से घेरा. अशोक चौधरी और मंगल पांडे पर भी आरोपों के तीखे तीर चलाए. पलटवार में जो छिटपुट गर्मी दिखी उसपर भी जाँच साँच की खुली चुनौती दी. संजय जायसवाल भी उनके रडार पर आए.
 
तो प्रशांत सत्तापक्ष पर हमलावर क्यों हैं? क्योंकि जवाब तो सत्ता से ही मांगा जाएगा न, यह सहज और औपचारिक जवाब है जो हम सब को पहले से पता है. फिर. इसके अलावा. इसके अलावा भी कुछ कारण हैं. जैसे, प्रशांत किशोर के लिए यह दुष्प्रचार भी हुआ कि वो भाजपा की बी-टीम हैं. इस आरोप से निवारण का टोटका यही है कि जिसकी बी-टीम होने का आरोप है, उसपर हमलावर रहें. दूसरा, लोग सुशासन से जन सुराज की ओर तभी जाएंगे, जब जन सुराज सुशासन को अधूरा, अटका और भटका हुआ साबित कर सकेगा. तीसरा, प्रशांत की राजनीति विकास के लेटेस्ट मॉडल की है. लेटेस्ट मॉडल तभी बिकता है जब वो पुराने मॉडल से श्रेष्ठ साबित हो. सामाजिक न्याय के पारंपरिक तरीके से इतर प्रशांत आधुनिक और परिवर्तनशील परिवेश में एक प्रेक्टिकल मॉडल की बात करते हैं. इस मॉडल का टकराव तेजस्वी मॉडल से है ही नहीं. इसलिए प्रशांत हमलावर हैं एनडीए पर.
 
लेकिन हमला अगर एनडीए पर है तो यह तेजस्वी के लिए परेशानी की बात क्यों है? बिहार में दो दशक का सच हैं नीतीश. लेकिन नीतीश अब कमज़ोर होते जा रहे हैं. जादू कितना भी बड़ा हो, एक समय के बाद खत्म होता है. रंग हल्के होते जाते हैं. तबीयत भी ढीली होती जाती है. ऊर्जा किसी की सूर्य जैसी रहती नहीं, क्षीण होती है. नीतीश को हटाकर देखें तो जदयू एक कमज़ोर पार्टी दिखती है. इस पार्टी और इस सरकार से असंतुष्ट लोगों का दूसरी ओर जाना एक स्वाभाविक राजनीतिक चिंता है. इस चिंता के मूल में एंटी इन्कंबेंट वोट का शिफ्ट होना और दूसरे का मज़बूत होकर उभर आना निहित है. नीतीश को मुस्लिम वोट भी मिलता ही रहा है. लेकिन भाजपा के साथ जाकर वो उसी तादाद में बना रहेगा, यह कह पाना थोड़ा अति उत्साही हो जाएगा. उस वोट में भी सेंध तय है.
 
यह असंतुष्ट, नाखुश, स्विंग वोट दो-ध्रुवी लड़ाई में अगर दूसरे पक्ष के पास गया तो दूसरा पक्ष मज़बूत होगा. मज़बूत होने का सबसे बड़ा जोखिम यही है कि वर्तमान सरकार पिछली बार बहुत मामूली बढ़त से जीती थी. एनडीए के पास 131 विधायक हैं यानी 243 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत से थोड़ा सा ज्यादा. दूसरी तरफ़ 111 हैं. थोड़ी सी वोट संख्या घटी और दुर्घटना घटी. लेकिन इसी पूरे समर में अगर कोई इन नाखुश लोगों को रिझा ले जाए तो मामला जस का तस. इसलिए एनडीए पर हमला कर रहे प्रशांत किशोर दरअसल तेजस्वी के गठबंधन का ही ज्यादा नुक़सान कर रहे हैं. हालांकि प्रशांत किशोर ख़ुद मानते हैं कि वो दोनों तरफ़ के वोट काटेंगे. लेकिन वोट कितना और किसका कटेगा, यह सीट, जाति, चेहरे, प्रतिद्वंद्वी जैसे तमाम फैक्टरों पर निर्भर है. मूल बात फिर भी वही रहेगी कि नीतीश से छिटके वोट आरजेडी या कांग्रेस के पास पूरी तरह शिफ्ट हो सकेंगे या पसीने में नहाए प्रशांत इसमें अपना इनाम जीत लेंगे.
 
तो क्या ये बात तेजस्वी को समझ नहीं आती. हो सकता है कि इस कारण से एनडीए प्रशांत के साथ फ्रेंडली मैच खेलता रहे. लेकिन इंडिया वालों को तो इस खतरे पर मुखर होना होगा. यही चक्रव्यूह है शायद. विक्रम बेताल अवस्था. बोले और फंसे. तेजस्वी और राहुल अगर प्रशांत पर बोलेंगे तो प्रशांत मज़बूत होंगे. बोलना ही रिकग्नाइज करना है. वैधता देना है. राजनीति में किसी के ख़िलाफ़ बोलना उसे अपने बराबर ले आने जैसा होता है. इसलिए चुप्पी एक मजबूरी है. महागठबंधन का भला इसी में है कि वो प्रशांत को अनदेखा करता रहे. चुनाव दो पक्षों के बीच बना रहे. इसी में संभावना है. ये संभावना और ये चुप्पी क्या कारगर रहेगी, ये पता चलेगा चाचा नेहरू के जन्मदिन पर.

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