बीतते सितंबर और आ रहे अक्टूबर-नवंबर के बीच के किसी समय में जब आसमान लगभग साफ ही रहने लगता है या कभी-कभी बादल के कुछ बचे-खुचे टुकड़े पानी बरसा लेते हैं, उत्तर भारत में सर्दी की आमद हो जाती है. इसी नर्म अहसास वाले दिनों में बचपन से किशोरपन की ओर बढ़ रहे बच्चे (लड़के-लड़कियां दोनों) ही अपनी ही समझ से कुछ खेल आयोजित करते हैं. उनके हाथ में सजा-धजा एक गुड्डा होता है, लड़कियों के हाथ में एक गुड़िया और झीनी से रोशनी वाला एक दीपक.
बच्चे इन्हें नाम भी देते हैं और बड़े प्यार से पुकारते हैं टेसू और झांझी… ये परंपरा धीरे-धीरे पीछे छूट रही है, लेकिन फिर भी कुछ इलाकों ने इसे जिंदा बचा रखा है.
सर्दियों के स्वागत का उत्सव
समूचा भारत ही अलग-अलग रीति-रिवाजों से रंगे हुए ऐसे खूबसूरत टुकड़ों से सजा हुआ है कि भारत भ्रमण करते जाइए और इत्मीनान से एक-एक टुकड़े को पढ़ते जाइए. उत्तर भारतीय गंगा-यमुना का मैदानी इलाका अलग-अलग रिवाजों से समृद्ध है और जब दिल्ली से आगे बढ़ते हुए, यमुना के किनारे चलते हुए बुंदेलखंड तक पहुंचे तो यह समूचा इलाका दशहरे के बाद सर्दियों का स्वागत बड़े ही आत्मीय ढंग से करता है.
शरद पूर्णिमा के दिन जब चंद्नमा अपनी 16 कलाओं के साथ चमक रहा होता है तो आगरा, मथुरा, कासगंज, अलीगढ़, इटावा, औरेया, कानपुर के अलावा बुंदेलखंड के इलाकों में बच्चे बड़े उत्साह से टेसू-झांझी सजाते, उनका विवाह कराते नजर आ जाएंगे. जैसे शहरीकरण और बदलती जीवनशैली ने युवाओं की सामाजिक भागीदारी में कमी ला दी है, वैसे ही टेसू-झांझी के विवाह का ये खुशनुमा त्योहार भी अब धीरे-धीरे बीते दिनों की बात हो रही है.

नवरात्र के दिनों से शुरू हो जाती है तैयारी
होता क्या है कि लड़के मिल-जुड़कर एक रंग-बिरंगे कपड़ों से एक गुड़्डा तैयार करते हैं, इसके दूल्हे की तरह सजाते हैं. इसका नाम टेसू है. टेसू को सजाने के लिए बच्चे टोलियों में गली-गली घूमते हैं और लोगों से चंदा-पैसा इकट्ठा करते हैं. गाने गाते हैं, नाचते हैं और इस तरह जब टेसू सज जाता है, तब वो लड़कियों की टोली को ये ये जानकारी देने जाते हैं कि अपनी झांझी तैयार कर लें, शरद पूर्णिमा को टेसू की बरात लाएंगे. जिस वक्त देशभर में नवरात्रि और दशहरे की धूम होती है, बच्चे अपने टेसू-झांझी सजाने के लिए तैयारी शुरू कर देते हैं.
महाभारत की गाथा से निकली है परंपरा!
टेसू-झांझी की परंपरा भी महाभारत की ही गाथा से निकली है. इस कथा के केंद्र में है महान योद्धा बर्बरीक (जिसे टेसू के नाम से भी जाना जाता है), जो भीम का पोता और घटोत्कच का पुत्र था. बर्बरीक ने अपनी मां से युद्ध कला सीखी और वह इतना शक्तिशाली था कि अकेले ही महाभारत के युद्ध को खत्म कर सकता था. भगवान शिव, उनकी कुशलता से प्रभावित होकर, उन्हें तीन विशेष बाण भेंट किए, जबकि अग्नि देव ने उन्हें एक अजेय धनुष प्रदान किया.
बर्बरीक की कहानी जो आगे चलकर बनी टेसू की परंपरा
बर्बरीक ने अपनी मां से अनुमति मांगी और वादा किया कि वह कमजोर पक्ष के लिए लड़ेंगे. उस वक्त कमजोर पांडव ही थे, लेकिन बर्बरीक के आने से बाजी पलट सकती थी और युद्ध बेनतीजा हो जाता. इस लिए कृष्ण ने ब्राह्मण वेश में उनकी परीक्षा ली और पूछा कि बर्बरीक को युद्ध को अकेले समाप्त करने में कितना समय लगेगा, तो उसने आत्मविश्वास से जवाब दिया कि केवल एक मिनट लगेगा. इससे कृष्ण आश्चर्यचकित हो गए, खासकर क्योंकि बर्बरीक के पास केवल तीन बाण थे.
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से लिया शीषदान
बर्बरीक की क्षमताओं से चकित, कृष्ण ने महसूस किया कि उनकी उपस्थिति युद्ध के संतुलन को बिगाड़ सकती है. उन्होंने समझाया कि कमजोर पक्ष का समर्थन करने के वादे से बर्बरीक ने अनजाने में एक दुविधा पैदा कर दी, वह जिस पक्ष में वह शामिल होंगे, वह मजबूत हो जाएगा, जिससे दूसरे का विनाश हो जाएगा. इसे रोकने के लिए, ब्राह्मण बने श्रीकृष्ण ने उनका शीषदान मांग लिया. बर्बरीक ने इसके लिए सहमति दी, बशर्ते उनके दो इच्छाएं पूरी हों, पहला युद्ध देखना और दूसरा झांझी से विवाह करना.
बर्बरीक ने वीरता के साथ अपना शीषदान किया. कृष्ण ने इसे कुरुक्षेत्र में सबसे ऊंची पहाड़ी पर ले जाकर तीन खंभों पर रख दिया ताकि बर्बरीक युद्ध को देख सके. उनके इस बलिदान की याद में और झांझी से विवाह की उनकी इच्छा के कारण ही, हर साल शरद पूर्णिमा की रात टेसू की बारात निकाली जाती है. हालांकि बर्बरीक का नाम लोककथाओं में टेसू कैसे पड़ गया, कहानियों की गहराई में जाकर भी इसका सटीक जवाब नहीं मिल पाता है.
बुंदेलखंड की लोककथा में टेसू
हालांकि बुंदेलखंड की कुछ लोककथाओं में टेसू किसी कबीले के सरदार का बेटा था. यह कहानी अपने आप में 700-800 साल का इतिहास समेटी है. उसके कबीले पर किसी आक्रमणकारी ने आक्रमण किया. टेसू की उस दिन बरात निकलनी थी लेकिन अचानक युद्ध छिड़ने से उसे युद्ध लड़ना पड़ा. टेसू वीरता से लड़ा अपने कबीले की रक्षा की, लेकिन गंभीर घायल होने के कारण आखिरकार बलिदान हो गया.

प्रेम और बलिदान की याद दिलाता है टेसू-झांझी
बुंदेलखंड में लड़की का ब्याह कटार से भी होता है. टेसू ने युद्ध में जाने से पहले अपनी कटार झांझी को भिजवा दी थी. झांझी ने इस कटार से ब्याह किया और जब उसे पता चला कि टेसू नहीं रहा तो उसने भी अपनी जान दे दी. बुंदेलखंड में अद्भुत वीरता और प्रेम की ये कहानी फिजाओं में बस गई और बच्चों ने टेसू-झांझी के विवाह के खेल से इस गाथा के आज तक जिंदा बचा रखा है. ये एक लोक कथा है और लोककथाएं दिन-तारीख, स्थान, देश-काल से परे होती हैं. टेसू-झांझी प्रेम, बलिदान और परंपरा की स्थायी शक्ति की एक सुंदर याद दिलाता है.
टेसू कैसा दिखता है?
टेसू आकर्षक मिट्टी का गुड्डा है जो तीन पैरों पर खड़ा है, इसका ये रूप इसे बर्बरीक की कथा से जोड़ता है. हंसता हुआ टेसू, मूंछो पर ताव, सिर पर रंगीली पगड़ी, आँखों में काजल और मुंह में पान. टेसू एक हाथ में लाल तोता और दूसरे में हुक्का पकड़े हुए है. यह काफी आकर्षक आकृति है! दूसरी ओर, झांझी एक रंगीन मिट्टी का घड़ा है, जिसमें छेद हैं और अंदर से इसमें दीपक जलाया जाता है और किनारे-किनारे लाल चुनरी से सजाते हैं.
ये पूरा स्वरूप जीव और आत्मा के मिलन का भी है. जिसमें झांझी चेतना की प्रतीक है. नवरात्रि त्योहार के दौरान, लड़के दस दिनों तक टेसू की पूजा करते हैं, जबकि लड़कियां झांझी सजाती हैं. इस दौरान वह विवाह योग्य लड़कियां अच्छे पति की प्रार्थना करती हैं. दशहरे के दिन बच्चे टेसू और झांझी को कपड़े में लपेटते हैं और पूरे दिन घर-घर जाकर खुशी से गीत गाते हैं. रीति-रिवाज के दौरान टेसू को पकड़े हुए लड़के कुछ इस तरग गीत गाते हैं.
“मेरा टेसू, यही अड़ा, खाने को मांगे दही वड़ा,
सूख गया मेरा टेसू रे, एक टांग पे खड़ा खड़ा,
यह आकर्षक धुन टेसू के आसपास की खुशी और परंपराओं का उत्सव मनाती है! शरद पूर्णिमा की रात को, एक पंडित दोनों का विवाह कराता है, जबकि लड़कियां पारंपरिक गीत गाती हैं. फिर, जो टेसू के बाराती बनकर गए होते हैं, सभी मिलकर शादी की दावत खाते हैं, ये सबकुछ प्रतीकात्मक तौर पर लगभग वैसा ही होता है जैसा कि एक आम हिंदू विवाह में होता है. अंतिम विदाई के रूप में, वे दोनों को कुएं, तालाब या नदी में एक साथ विसर्जित कर देते हैं. ये उत्सव केवल रिवाज भर नहीं है. ये हमारी विरासत का जीवंत जुड़ाव है.
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