कहानी: आधी रात की ख़ामोशी
राइटर: जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
कुछ महीनों पहली की बात है मैंने एक सेकेंड हैंड रॉकिंग चेयर खरीदी… वो होती है ना एक कुर्सी जिसपर आप बैठकर आगे-पीछे हिलते हैं… देखने में बहुत खूबसूरत थी… बारीक नक्काशी का काम था… लकड़ी के घुमावदार हत्थे, आरामदेह भी थी। मैंने एक दुकान से खरीदी थी जो सेकेंड-हैंड सामान बेचता था इसीलिए सस्ती भी मिल गयी थी। हालांकि मेरी पत्नी उसे देखकर खुश नहीं थी। उसका कहना था “पता नहीं यार, मुझे कुछ ठीक नहीं लग रही… ये काफी पुरानी है। तुमने जिससे ली है, वो तो कोई दुकानदार है न, जो उस ऐप पर सामान बेचता है। पता नहीं उसने कहां से ली होगी? न जाने कौन-कौन इस पर बैठा होगा। मुझे किसी की इस्तेमाल की हुई, पुरानी-वुरानी चीज़ें घर में अच्छी नहीं लगती’’ वो मेरा दिल रखने के लिए हल्का सा मुस्कुराकर चली गयी। मैंने अपनी नौ साल की बेटी सबीहा के साथ कुर्सी को ड्राइंग रूम में रख दिया। एक्वेरियम के करीब किनारे पुरानी वाली मेज़ भी लगा दी, और वो पुराना गुलदान जो मेरी और शाहीन की शादी की तस्वीर के आगे रखा था, उसे स्टूल पर सजा दिया। सबीहा को भी कुर्सी बहुत पसंद आई, उसने तो कुर्सी को झूला बना लिया। गुलाबी फ्रॉक पहने सबीहा कुर्सी पर पैर फैलाए आगे-पीछे होती तो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट खिलने लगती। (बाकी कहानी नीचे है, लेकिन इसी कहानी को ऑडियो में सुनने के लिए ठीक नीचे दिये लिंक पर क्लिक करें)
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वो रॉकिंग चेयर अब हमारे घर का हिस्सा बन गयी थी। शुरु-शुरु में मैं शौकिया तौर पर, शाम को ऑफ़िस से आने के बाद कुछ देर कुर्सी पर बैठकर सुबह वाला अख़बार पढ़ता।
‘हैलो… हां अम्मी’ एक शाम जब मैं कुर्सी पर बैठा अख़बार पढ़ रहा था तो मेरा फोन बजा। गांव से अम्मी का कॉल था। ‘कैसी हो? सब ठीक तो है। सबीहा को देखने का बड़ा दिल कर रहा है कई दिनों से’ अम्मी ने कहा तो मैंने जवाब दिया, ‘हां वो भी बहुत याद करती है आपको, अभी यही बैठी थी, शायद होमवर्क कर रही है अपने कमरे में’ अम्मी कुछ देर खामोश रही फिर टूटती आवाज़ में बोली, ‘बेटा, कुछ दिनों से बड़ा जी घबरा रहा है। बहुत याद आती है तुम लोगों की। वक्त मिले तो.. लेने आ जाओ, तुम्हारे साथ कुछ दिन वहां…’
– ‘हां मैं देखता हूं क्या हो सकता है, अभी तो ऑफिस में काम इतना है कि फ़ुर्सत ही नहीं है, लेकिन आऊंगा.. और बताइये’
उन दिनों ऑफिस में काम वाकई बहुत ज़्यादा था। सुबह से शाम कब हो जाती थी पता ही नहीं चलता था। मैं अपनी थकान घर आकर उसी कुर्सी पर निकालता था। अच्छा लगता था। लेकिन एक रोज़ कुछ अजीब हुआ। एक सुबह जब मैं नाश्ता कर रहा था तो सबीहा ने कहा, ‘पापा…आप उस कुर्सी पर मत बैठा कीजिए…’
क्यों? मैंने मुस्कुराकर पूछा तो उसने घबराते हुए कहा, ‘वो कुर्सी रात में.. अपने आप हिलती है’
सबीहा की बात सुनकर पहले तो ब्रेड पर मक्खन लगाते मेरे हाथ रुक गये। मैंने सबीहा का चेहरा देखा, उसके चेहरे पर ऐसा ख़ौफ मैंने पहले कभी नहीं देखा था। ‘सबीहा क्या हुआ, अरे वो रॉकिंग चेयर है बेटा, वो हिलती ही है’ मैंने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा तो उसने ना में सर हिलाया। ‘नहीं पापा, मैं रात में वॉशरूम जाने के लिए उठी तो.. तो मैंने देखा.. वो…वो अपने आप… हिल रही थी.. जैसे, जैसे कोई उस पर बैठा हो’ मैं उसके सहमें हुए चेहरे को ग़ौर से देख रहा था और अब समझ पा रहा था कि पिछले कुछ दिनों से वो इतनी सहमी-सहमी सी क्यों रहती है। उसे वहम हो गया था। मैंने उसे समझाया कि हवा की वजह से हिल रही होगी, लेकिन तभी रसोई से शाहीन पराठे लेकर आ गयी। ‘छोड़ो ये सब, बताओ क्या पढ़ा रहे हैं आजकल स्कूल में’ मैंने बात बदल दी। मैं नहीं चाहता था कि बेवजह शाहीन को कुछ फितूर हो। वो पहले ही पुराने सामान को घर लाने के हक़ में नहीं थी।
मैं ऑफिस पहुंच गया लेकिन सबीहा का वो मासूम डरा हुआ चेहरा मेरे ज़हन में कौंधता रहा। मैंने उसे फोन करके फिर से समझाया और कहा, ‘ठीक है? अब मत डरना। तुम तो स्ट्रांग गर्ल हो न पापा की’
– हम्म… उसने कहा तो मुझे सुकून आया। दफ़्तर से लौटते वक्त मैं उसके लिए, उसके पसंदीदा बुढ़िया के बाल ले गया… अब वो नार्मल लग रही थी।
“मम्मी का फोन आया था” मैंने शर्ट चेंज करते हुए शाहीन को बताया, ‘कह रही थीं, यहां आना चाहती हैं कुछ दिन के लिए’ मेरे बैग से टिफिन निकालते हुए शाहीन ने मेरी तरफ देखकर कहा, “सही तो कह रही हैं, वहां गांव में अकेली हैं, दिल घबराता होगा… ले आओ”
– ‘अरे तुमने तो कह दिया कह दिया ले आओ, छुट्टी मिलेगी गांव जाने के लिए?’ फिर कमरे से जाते हुए बॉस को कोसा, ‘वो मेरा बैठा ही है तनख्वाह काटने के लिए..’
उस रात बिस्तर पर लेटे हुए मुझे बार-बार फोन पर सुनी अम्मी की आवाज़ याद आ रही थी। कितनी तड़प और बेचारगी थी उसमें। काश मैं वाकई जाकर अम्मी को ले आता, यहां अपने पास… लेकिन ज़िंदगी वक्त के कंधे पर ख्वाहिशों के जनाज़े के अलावा और क्या है।
रात तीन बजे जब मेरी आंख खुली तो न जाने कौन सपना देखा था, गला सूख रहा था। मैं उठा तो देखा शाहीन करवट लेकर दूसरी तरफ मुंह किए थे। मैंने साइड टेबल पर रखा जग उठाया और सीधे मुंह से लगाकर पानी गटकने लगा। लेकिन तभी मेरे कानों में एक आवाज़ पड़ी…
मैं चौंक गया… ये कैसी आवाज़ है। आवाज़ ड़्राइंग रूम से आ रही थी, मैं बिस्तर से उठा और नंगे पैर ड्राइंग रूम की तरफ चल दिया। मैंने अपना दरवाज़ा आहिस्ता से सरकाया। लेकिन गहरी ख़ामोशी में वो भी चर्र की आवाज़ के साथ खुला। मैं ड्राइंग रूम में पहुंचा, अंधेरा था। मैंने ग़ौर से उस रॉकिंग चेयर की तरफ देखा… तो मैं कांप गया। ऐसा लगा जैसे अंधेरे में कोई धुंधला सा साया, कुर्सी से उठा और कुर्सी के पीछे बैठ गया। कुर्सी अब भी हिल रही थी…
हाथ पैरों में एक अजीब सी झनझनाहट हो रही थी, जैसे नसों में बहता हुआ खून जमने लगा हो। दिल बैठने लगा था। उस घुप्प अंधेरे कमरे में बाहर से आती धुंधली रौशनी में एक साया मेरे सामने से उठा और कुर्सी के पीछे जा बैठा था। वो अब भी कुर्सी के पीछे था। ‘क….कौन है… कौन है वहां’ मैंने फंसते हुए गले से आवाज़ लगाई। धुंधली रौशनी में मैंने देखा, एक चेहरा कुर्सी के पीछे से झांक रहा था। बदन में कंपकपी होने लगी, मैंने जल्दी से लाइट जलाई… तो गायब। वहां कोई नहीं था। डरते-डरते मैंने कुर्सी के पास जाकर मुआयना किया। अब वहां कोई नहीं था।
‘हाह’ मैंने गहरी सांस ली। और अपने वहम पर हैरान हुआ। ख़ैर मैंने लाइट दोबारा बंद की और वापस बेडरूम की तरफ जाने लगा। लेकिन तभी फिर से वही आवाज़ सुनाई दी कदम रुक गए, पलट कर देखा तो कुर्सी पर एक साया आगे पीछे हो रहा था। वो काठी से कोई बूढ़ी औरत लग रही थी, जिसके कंधे से लटकते हुए सफेद बाल अंधेरे में चमक रहे थे। कुर्सी के आगे-पीछे होने पर चर्र-चर्र की वो आवाज़ कमरे में गूंज रही थी। अचानक कुर्सी की आवाज़ बंद हुई, वो औरत आहिस्ता से उठ खड़ी हुई और मेरी तरफ बढ़ने लगी… आहिस्ता-आहिस्ता….
‘शाहीन…’ मैंने गला फाड़ कर आवाज़ लगाई और वहीं बेहोश हो गया।
होश आया तो मैं बिस्तर पर था, सुबह हो चुकी थी और शाहीन और सबीहा का परेशान चेहरा मेरे सामने था। और हमारे पड़ोस के डॉ मित्रा कुर्सी पर बैठे थे। मैंने महसूस किया कि मेरी हथेली शाहीन की हथेली में थी। उसकी आंखें बह रही थीं… ‘कैसे हैं आप?’ उसने आंखे पोंछते हुए पूछा, तो रात का पूरा मंज़र मेरी आंखों के सामने किसी तेज़ रफ्तार फिल्म की तरह कौंध गया। उसे याद करके जिस्म के रोए खड़े हो गए। ‘कुछ नहीं, सर घूमने लगा था, पानी पीने के लिए उठा तो ग्लास नहीं था, रसोई की तरफ जा रहा था कि चक्कर आ गया’ मैंने बनावटी हंसी के साथ कहा तो शाहीन ने ऊपर देखते हुए भगवान का शुक्र अदा किया, लेकिन मेरे बगल में बैठी सबीहा मुझे शक से घूर रही थी। नज़र टकराईं तो मैंने नज़र फेर लीं।
कुछ तो था उस कुर्सी में, जो मैंने देखा वो मेरा वहम नहीं था। ज़रूर इस कुर्सी की कोई राज़ था, जो अब मुझे हर हाल में पता लगाना था।
‘हैलो जी मैं बोल रहा हूं, वो रॉकिंग चेयर ली थी न आपसे… जी जी’ मैंने एक दोपहर ऑफिस कैंटीन से उस शख्स कॉल लगाया। ‘वो दरअसल पूछना था कि वो.. कुर्सी जो आपने मुझे बेची, वो आपने कहां से खरीदी, नहीं बस ऐसे ही पूछ रहा था’ उस शख्स ने कहा कि उसकी दुकान पर कई जगहों से पुराना सामान आता है, वो कुर्सी कहां से आई थी, ये पता करने में उसे थोड़ा वक्त लगेगा।
मैं जब भी उस रॉकिंग चेयर को देखता था तो मुझे शाहीन की वो बात याद आती थी, ‘पता नहीं किसकी कुर्सी है ये’ उस रात जो मैंने देखा था, उसका एक एक पल मेरे ज़हन में कैद था। वो कोई बूढ़ी औरत ही थी जो मेरी तरफ बढ़ रही थी। कौन थी वो, पता नहीं। लेकिन वो मंज़र याद करते हुए खून जमने लगता था। कुछ दिन गुज़रे कि मेरे लिए एक और मुश्किल खड़ी हो गयी। शाहीन की अम्मी की तबियत ख़राब हो गयी। उसे कुछ दिन के लिए अपने घर जाना था। मैं चाहता था कि वो रुक जाए, न जाए… लेकिन नहीं कह पाया।
‘खाने का ध्यान रखना, और देर तक मत जागना। मैं फोन करूंगी’ उसने कहा और सबीहा के साथ जाने लगी। जाते-जाते सबीहा दरवाज़े पर ठहर गयी, उसने पलटकर मेरी तरफ देखा और कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए ना में सर हिलाया। वो कह रही थी कि आप उस कुर्सी पर मत बैठना। अकेली रात उस घर में कयामत सी महसूस होती थी। वही घर जहां मैंने बरसों बिताए थे अब किसी ख़ौफनाक खंडहर सा लगता था। मैं अपने कमरे की दोनों चिटकनियां बंद करके रात में सोता था.. हर आहट पर चौंक जाता था।
ऐसी ही वो एक भयानक रात थी। ढाई बजे तक बारिश हुई थी… बीच-बीच में बिजली चमक उठती थी। मैं अपने कमरे में दुबका चुपचाप पड़ा था। कि अचानक दूसरे कमरे से चर्र-चर्र की आवाज़ गूंजने लगी। मैं घबरा के उठ गया। गौर से सुना तो किसी बूढ़ी आवाज़ की सिसकियां सुनाई दे रही थीं। बंद दरवाज़े के नीचे की थोड़ी सी जगह से रौशनी अंदर आ रही थी। मैंने पूरी हिम्मत जुटाई और दरवाज़े के की-होल से झांक कर ड्राइंग रूम में देखा। जो देखा वो देख कर मेरे खून में चिंगारियां दौड़ने लगीं। एक सफेद पोश बूढ़ी औरत, चेहरे पर झुर्रियां सजाए कुर्सी पर बैठी आगे पीछे हो रही थी। लाल लहूं की दो लकीरें उसकी आंखों से होती हुई गालों पर बह रही थी। उसका सिसकियां धीरे-धीरे आवाज़ में बदलने लगीं। वो रो रही थी, जैसे किसी को याद कर रही हो। बिजली की चमक चेहरे पर पड़ती तो सामने उसे देखकर जिस्म कांपने लगता। वो उठी और उसने मेरी तरफ दोनों हाथ फैलाए… जैसे कुछ मदद अम्मीग रही हो… फिर अचानक की-होल की तरफ बढ़ने लगी।
कंकाल के चेहरे वाली वो सफेद बाल वाली औरत, झुक कर हाथ फैलाए की-होल की तरफ बढ़ रही थी। वो मंज़र ऐसा था कि जो एक बार देख ले वो आखिरी सांस तक न भूल पाए। मैं झटके से पीछे हुआ और फर्श पर गिर कर बदहवासी से चिल्लाने लगा। मेरी आवाज़ सुनकर कुछ पड़ोसी दरवाज़ा खटखटाने लगे। दरवाज़े के नीचे से आने वाली वो रौशनी गायब हो गई। मैंने डरते-डरते दरवाज़ा खोला तो रॉकिंग चेयर हिलते-हिलते रुक गयी थी।
‘क्या हुआ भाई साब, सब ख़ैरियत..’ पड़ोसियों ने मुझे संभाल तो मैंने उन्हें बताया कि मैंने एक बुरा सपना देखा था। मैं जानता था कि उन्हें सच बताने का कोई फायदा नहीं, कोई यकीन भी नहीं करता।
भगवान का नाम लेकर मैं पूरी रात बिस्तर में लेटा माला जपता रहा। सुबह मोबाइल पर नज़र गयी तो क मैसेज पड़ा था। मैसेज उसी दुकानदार का था जिसने कहा था कि वो पता करके बताएगा कि ये कुर्सी कहां से आई थी। मैसेज में लिखा था – House No. 32 A block लक्ष्मी नगर
मेरे पास ज़्यादा वक्त नहीं था, मैंने बची-कुची हिम्मत जुटाई और फौरन स्कूटर ले कर विश्वास नगर पहुंच गया। कुछ ही देर में मैं एक इमारत के सामने खड़ा था। ‘भाई साब, सुनिए.. ये 32… A में जाना है’ हेल्मट पकड़े हुए मैंने गेट पर बैठे एक सिक्योरिटी गार्ड से कहा तो उसने चौक कर मुझे देखा, ‘32? वहां किससे मिलना है? वहां तो कोई नहीं रहता, बंद है’
– बंद है? कब से? मैंने पूछा तो उसने जो कहा वो सुनकर मेरी आंखें हैरानी से फैल गयी। उसने कहा, ‘वो तो उसी दिन से बंद है, जिस दिन घर से बूढ़ी अम्मा की लाश मिली थी।
मेरी आंखों में हैरानगी अबतक तैर रही थी। मैंने सिक्योरिटी गार्ड की जेब में कुछ रुपए डाले तो उसने पूरी बात तफ़्सील सी बताई। ‘अब क्या बताए सर, ये सब बड़े लोगों की न, यही कहानी है। बच्चे भेज देंगे विदेश और खुद रह जाएंगे अकेले। 32 नंबर वाली अम्मा के साथ भी वही तो हुआ’ उसने बताया कि फ्लैट नम्बर 32 में एक मिसेज़ शालिनी रहती थीं, पति की मौत हो चुकी थी। बेटा विदेश में नौकरी करने लगा, और फिर वहीं बस गया। सुनने में ये भी आया कि वहीं शादी कर ली। पहले कभी-कभी आता था, फिर दो सालों में एक बार आने लगा… और फिर कई सालों से नहीं लौटा। बुज़ुर्ग मिसेज़ परेरा की ज़िंदगी मुट्ठी में रेत की तरह छूट रही थी, लेकिन पथराई आंखे सिर्फ बेटे के इंतज़ार में झपकती थीं। बेटा नहीं आया। और एक दिन उनके ऊपर वाले फ्लैट की ड्रेनेज के काम के लिए लोग उनसे बात करने के लिए घर गए, दरवाज़ा खटखटाने पर भी दरवाज़ा नहीं खुला। लोगों को शक हुआ तो पुलिस बुलाकर दरवाज़ा तोड़ा गया। और फिर दुनिया ने देखा कि एक अम्मी अपने बेटे को एक आखिरी बार देखने की आस में, कुर्सी पर बैठे-बैठे इंसान से कंकाल में बदल गयी थी। और कंकाल के पास पड़ा थी बेटे की तस्वीर…
मेरी आंखे भीग गयी थीं, ज़िंदगी कभी कभी कितनी बेरहम हो जाती है कि बुझती हुई आंखों को एक छुअन, एक दिलासा, एक लम्स तक नसीब नहीं होता। मुझे फोन पर मेरी अम्मी की वो रूंधी हुई आवाज़ याद आने लगी जो मेरे पास आने के लिए बहाने बना रही थी, कभी कहती शहर के अस्पताल में दिखाना है, कभी कहती गांव का पानी खराब हो गया है, कभी कहती कि जी घबरा रहा है… असल में वो सिर्फ मुझे देखना चाहती है, मेरे साथ रहना चहती है।
‘बेटा आया फिर अम्मी की मौत के बाद?’ मैंने पूछा तो उसने कंधे उचकाते हुए कहा, ‘पता नही, सोसाइटी वालों ने क्रिया कर्म कर दिया था लेकिन अस्थि विसर्जन के लिए रख दी थीं, पता नहीं वो आया कि नहीं’
मैंने उससे रिक्वेस्ट की, कि एक बार मुझे 32 A ले जाए। वो बोला, ‘हां तो खुला ही है, सामान तो सब नीलाम हो गया था, किराए पर कोई लेता नहीं, हो आइये’ उसने कहा तो मैंने उसका शुक्रिया अदा किया और लिफ्ट के ज़रिए पहुंच गया।
दरवाज़े पर धूल थी, कई बारिशों के बाद ज़रा ऐंठ गए थे। लेकिन धक्का दिया तो दरवाज़ा खुल गया। खाली घर की दीवारों पर सीलन थी, यहां वहां कूड़ा बिखरा था। मैं उस घर को ग़ौर से देख रहा था… जहां बूढ़ी आंखों ने मौत से लंबा इंतज़ार किया, अपने बेटे की याद में। किनारे किचन था, बाईं तरफ बालकनी… और पीछे एक अलमारी पर लाल कपड़े में लिपटा एक लोटा सा रखा था। मैंने ग़ौर से देखा तो वो वो अस्थि कलश था। मेरे हाथ कांप रहे थे… मैंने उस कलश को उठाया तो लगा मेरे हाथों में मेरी अम्मी का इंतज़ार है, जिसका वज़न मेरी पूरी ज़िंदगी से भी ज़्यादा था।
कुछ देर बाद मैं अपनी स्कूटर पर तेज़ रफ्तार चला जा रहा था, डिग्गी में अस्थि कलश था जिसका विसर्जन मैंने उसी दोपहर पूरी विधि-संस्कार के साथ किया। उस दिन के बाद से उस रॉकिंग चेयर पर वो बूढ़ी औरत कभी नहीं दिखी, लेकिन हां रॉकिंग चेयर अब भी आगे-पीछे होते हुए चर्र-चर्र की आवाज़ करती है, लकिन अपने आप नहीं.. गांव से अम्मा को जो ले आया हूं उस पर बैठने के लिए।
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