Dussehra 2025: आज देशभर में रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण के पुतलों का दहन किया जाएगा. यह पर्व हर साल आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है. वाल्मीकि रामायण के अनुसार, रावण ने अपनी घोर तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके अजर-अमर रहने का वरदान प्राप्त कर लिया था. ऐसा कहते हैं कि रावण की नाभि में अमृत कुंड था. यही कारण है कि राम के बारंबार प्रहार से भी रावण नहीं मर रहा था. राम ने कई बार रावण के सिर और भुजाओं को तीर से निशाना बनाया. लेकिन रावण का बालबांका नहीं हुआ.
इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में लिखते हैं-
श्लोक
काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस।
प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥
काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥
अर्थ
रावण की सिर और भुजाएं कई बार काटी गईं. फिर भी वीर रावण मरता नहीं था. हालांकि प्रभु श्रीराम तो खेल रहे थे. लेकिन मुनि, सिद्ध और देवता उस युद्ध को देखकर बहुत व्याकुल हो गए. दरअसल, रावण का सिर धड़ से अलग होने के बाद अपने आप जुड़ जाता था. काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता था. जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है. घोर परिश्रम के बाद भी शत्रु नहीं मरता था. तब प्रभु राम ने विभीषण की ओर देखा.
तुलसीदास आगे के श्लोक में लिखते हैं-
श्लोक
उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥
नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥
अर्थ
विभिषण महादेव का नाम लेकर कहते हैं- हे उमा! जिसकी इच्छा मात्र से काल भी मर जाता है, वही प्रभु सेवक की परीक्षा ले रहे हैं. हे सर्वज्ञ! चराचर के स्वामी! शरणागत के पालनहार! देवता और मुनियों को सुख देने वाले! सुनिए- रावण के नाभिकुंड में अमृत का निवास है. हे नाथ! ये राक्षसराज उसी के बल पर जीता है. विभीषण के वचन सुनते ही भगवान राम ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए.
श्लोक
असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥
बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥
दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥
मंदोदरि उर कंपति भारी। प्रतिमा स्रवहिं नयन मग बारी॥
अर्थ
उस वक्त कई प्रकार के अपशकुन होने लगे. गदहे, स्यार और कुत्ते रोने लगे. जगत को सूचित करने के लिए पक्षी बोलने लगे. जहां-तहां केतु प्रकट हो गया. दसों दिशाओं में अत्यंत दाह होने लगा. बिना ही योग सूर्य ग्रहण लग गया. उधर, मंदोदरी का हृदय भी कांपने लगा. मूर्तियों की आंखों से आंसू बहने लगे.
श्लोक
खैंचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥
सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥
डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥
अर्थ
श्रीरघुनाथ जी ने कानों तक धनुष खींचकर 31 बाण छोड़े. धनुष से बाण ऐसे निकले, मानो कालसर्प हों. एक बाण ने नाभि के अमृतकुंड को सोख लिया. अगले तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे. सिरों और भुजाओं से अलग होते ही रावण का शरीर पृथ्वी पर नाचने लगा.
धड़ प्रचंड वेग से दौड़ता है, जिससे धरती धंसने लगी. तब राम ने एक और बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए. मरते समय रावण बड़े घोर शब्दों से गरजकर बोला- राम कहां है? रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई. समुद्र, नदियां और पर्वत क्षुब्ध हो गए. रावण धड़ के दोनों टुकड़े फैलकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े.
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