अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का लॉन्ग टर्म गोल रहा, नोबेल पीस प्राइज हासिल करना. वे दावा कर रहे हैं कि उनकी वजह से बड़े-बड़े युद्ध रुक या टल गए, जो परमाणु जंग में बदल सकते थे. अपने इस शांति अभियान के हवाले से वे बार-बार नोबेल की इच्छा जताते रहे. यहां तक कि कई देश उनकी सिफारिश भी कर चुके. रिजल्ट का दिन करीब आने के साथ ही ट्रंप आक्रामक हो चुके. वे कह रहे हैं कि उन्हें पुरस्कार न मिलने का मतलब अमेरिका का अपमान है.
ट्रंप पिछले महीनों में कई बार दोहरा चुके कि उनकी ट्रेड डिप्लोमेसी ने कई देशों में जंग रुकवाई. यहां तक कि वे भारत-पाकिस्तान लड़ाई को भी रोकने का श्रेय लेते रहे, जबकि भारत ने हर बार इससे इनकार किया. अब ट्रंप इजरायल और हमास की लड़ाई रुकवाने की योजना बना चुके. कुल मिलाकर, वे एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं कि उन्हें शांति दूत मान लिया जाए और प्राइज मिल जाए, हालांकि ये भी हो सकता है कि कोई ऐसा नाम बाजी मार जाए, जिसका कोई जिक्र नहीं हो रहा.
कैसे होता है चुनाव
दरअसल नोबेल कमेटी पूरी तरह से तटस्थ होकर फैसला लेती है. नॉर्वे की संसद की बनाई हुई पांच सदस्यीय कमेटी में पुरस्कारों के लिए जनवरी में नॉमिनेशन बंद हो जाता है. इसके बाद सैकड़ों या हजारों नामों में से छंटनी होती है. विशेषज्ञों की एक टीम इन नामांकनों की गहराई से जांच करती है. वे देखते हैं कि उम्मीदवार का शांति में कितना योगदान रहा और इसका असर कितना लंबा होगा. प्रोसेस महीनों चलती है. ये भी चेक किया जाता है कि क्या नाम के पीछे राजनीतिक जोर है या जेनुइन है. फिर कमेटी बंद कमरे में बैठकर वोटिंग करती है. सबसे ज्यादा वोट पाने वाला विजेता होता है.

यह पूरी प्रक्रिया बेहद गोपनीय रहती है. यहां तक कि कौन से नाम आए और उनके लिए किसने सिफारिश लगाई, ये भी लगभग 50 साल तक सीक्रेट रखा जाता है. यानी, 2025 के जिन लोगों को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया है, उनके नामों की ऑफिशियल लिस्ट 2075 में ही खुलेगी.
फिर नाम कैसे बाहर आ जाते हैं
कई बार नामांकित करने वाले व्यक्ति या संगठन खुद अपना नाम बता देते हैं ताकि पब्लिक सपोर्ट मिलने लगे. इसी वजह से हमें ट्रंप या कुछ एक्टिविस्टों के नाम पता लग गए लेकिन इन नामों की आधिकारिक पुष्टि सिर्फ और सिर्फ कमेटी ही कर सकती है. पांच दशक बाद इन नामों को आर्काइव में देखा जा सकेगा.
फिलहाल चूंकि ट्रंप लगातार बता चुके, और कई देशों के लीडर भी कह चुके, लिहाजा हम जानते हैं कि दौड़ में ट्रंप भी हैं. उन्हें इजरायल के पीएम बेंजामिन नेतन्याहू से लेकर पाकिस्तान और कंबोडिया जैसे देशों के नेताओं ने भी सपोर्ट किया है.
भले ही उनका नाम पीस प्राइज के लिए नामांकित हुआ हो, लेकिन जीत की संभावना हल्की ही मानी जा रही है. इसके पीछे दो बड़े कारण हैं.
ट्रंप की नीतियां शांति से ज्यादा टकराव वाली रहीं
बेशक उन्होंने कुछ जगहों पर शांति समझौते कराए, जैसे अब्राहम अकॉर्ड्स, जिसमें इजरायल और कुछ अरब देश करीब आए, लेकिन उनकी बाकी विदेश नीतियां उलझन पैदा करने वाली रहीं. वे नाटो को लेकर ऊटपटांग बयान देते रहे. बार-बार पाला बदलते रहे. कई देशों पर जबरन आक्रामकता दिखाई. यहां तक कि कनाडा को 51वां अमेरिकी राज्य बनाने की बात करते दिखे.

घरेलू स्तर पर भी बंटी हुई राय
अमेरिका में ट्रंप की छवि काफी पोलराइज्ड है. उनके कार्यकाल में कई विवादित चीजें हुई. इस बार वे इमिग्रेशन को लेकर एंग्री यंग मैन बने हुए हैं, जिससे एक तबका ये मान रहा है कि ट्रंप की मानवाधिकार में खास दिलचस्पी नहीं. नोबेल कमेटी राजनीतिक विवादों से दूर रहने की कोशिश करती है और अक्सर ऐसे नामों से बचती है, जिनपर विवाद हो.
इस बार कई और नाम भी चर्चा में
– इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट ऑफ जस्टिस की तरफ से नॉमिनेशन आया है. सीमित ताकत के बावजूद ये कोर्ट लगातार न्याय पर काम करती रही. लिहाजा इसे मजबूत उम्मीदवार माना जा रहा है.
– कैंपेन फॉर उइगर्स नाम से संस्था चीन में उइगर मुस्लिमों के हित में काम कर रही है. मुस्लिमों से इस समुदाय पर चीन में नाइंसाफी की खबरें आती रहीं. इंटरनेशनल समुदाय भी इसमें सीधे दखल से बचता रहा. ऐसे में इस संस्था का काम और बड़ा हो जाता है.
– सूडान इमरजेंसी रेस्पॉन्स रूम एक स्वयंसेवी नेटवर्क है, जो तीन साल पहले वहां सिविल वॉर शुरू होने पर बना. इसने उन जगहों पर जाकर काम किया, जहां सरकार तक नहीं पहुंच पा रही थी.
—- समाप्त —-