बिहार में नीतीश कुमार ने लालू यादव को सत्ता से बेदखल करने के लिए दो दशक पहले लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) समीकरण का दांव चला था. नीतीश का लव-कुश फॉर्मूला हिट रहा, जिसके सहारे उन्होंने लालू यादव को बिहार की सियासत में हाशिए पर पहुंचा दिया था. पिछले कुछ सालों में नीतीश की लव-कुश केमिस्ट्री बिगड़ी है, जिसके चलते एनडीए के लिए सत्ता पर विराजमान रहना आसान नहीं है.
नीतीश के लव-कुश समीकरण में ‘लव’ यानी कुर्मी तो अभी जेडीयू के साथ मज़बूती से खड़ा है, लेकिन ‘कुश’ यानी कोइरी दूर हुआ है. नीतीश के फ़ॉर्मूले में पहला डेंट तो 2020 के चुनाव में लगा और 2024 में कोइरी समाज का बड़ा हिस्सा आरजेडी अपने साथ जोड़ने में सफ़ल रही. इसके चलते भाजपा (बीजेपी) और जेडीयू को नुकसान उठाना पड़ा.
बिहार में नीतीश के बिगड़े लव-कुश समीकरण को 2025 के चुनाव से पहले दुरुस्त करने के लिए भाजपा ने अपने ‘लव-कुश’ को बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी है. भाजपा ने बिहार चुनाव के लिए धर्मेंद्र प्रधान को प्रभारी, केशव प्रसाद मौर्य और सीआर पाटिल को बिहार का सह-प्रभारी बनाया है. ऐसे में सवाल उठता है कि भाजपा नेताओं की ये तिकड़ी क्या कुर्मी-कोइरी वोटों को साधे रखने में सफ़ल हो पाएगी?
बिहार में बीजेपी का ‘लव-कुश’ दांव
बिहार चुनाव से पहले भाजपा ने जिस तरह से धर्मेंद्र प्रधान, केशव मौर्य और सीआर पाटिल को ज़िम्मेदारी सौंपी है, यह सिर्फ़ संगठनात्मक बदलाव भर नहीं, बल्कि बिहार की सियासत के लिए बड़ा सियासी संदेश भी है. भाजपा के इस निर्णय के पीछे साफ़तौर पर जातीय संतुलन साधने की रणनीति है.
धर्मेंद्र प्रधान ओबीसी समाज की कुर्मी जाति से आते हैं तो केशव प्रसाद मौर्य भी ओबीसी की कोइरी जाति से हैं. इसके अलावा, सीआर पाटिल मराठा समाज से ताल्लुक़ रखते हैं, जो मूल रूप से खेती करने वाली कुनबी जाति के तहत आती है. एक तरह से इनका नाता कुर्मी जाति से माना जाता है.
भाजपा ने धर्मेंद्र प्रधान, केशव प्रसाद मौर्य और सीआर पाटिल के ज़रिए बिहार में कुर्मी-कोइरी यानी लव-कुश समीकरण साधने पर अपना फ़ोकस किया है. इसके अलावा, भाजपा ने कोइरी समाज से आने वाले उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी को पहले से आगे कर रखा है. भाजपा का सियासी मक़सद साफ़ है कि नीतीश के भरोसे पर सब नहीं छोड़ा जा सकता है, क्योंकि 2020 और 2024 में आरजेडी सेंधमारी करती नज़र आई है.
नीतीश का दरकता लव-कुश फ़ॉर्मूला
लालू यादव के एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण के सामने नीतीश ने लव-कुश यानी कुर्मी और कोइरी समीकरण का दांव चला. नीतीश कुमार ख़ुद कुर्मी समाज से आते हैं और उन्होंने कोइरी समाज के कई बड़े नेताओं को अपने साथ जोड़ा. नीतीश कुमार ने पटना के गांधी मैदान में ढाई दशक पहले कुर्मी और कोइरी समुदाय की बड़ी रैली की थी, जिसे लव-कुश का नाम दिया था. यह पहली बार था जब नीतीश कुमार ने लालू यादव के सामने ख़ुद को स्थापित करने के लिए खुली चुनौती दी थी.
नीतीश कुमार ने 2003 में रेल मंत्री रहते हुए बिहार के मुख्य विपक्षी पार्टी की कुर्सी पर उपेंद्र कुशवाहा को बैठाने का काम किया. कुशवाहा को प्रतिपक्ष का नेता बनाकर नीतीश ने बिहार में लव-कुश यानी कुर्मी-कोइरी (कुशवाहा) समीकरण को मज़बूत किया. इस समीकरण की बुनियाद के साथ नीतीश का भाजपा से हाथ मिलाने का प्रयोग सफ़ल रहा. इसी फ़ॉर्मूले के ज़रिए नीतीश ने 2005 में बिहार की सत्ता की कमान सँभाली थी, उसके बाद से वह सत्ता में बने हुए हैं.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लव-कुश समीकरण के सहारे ख़ुद को सत्ता के क़रीब रखे हुए हैं, लेकिन इस समीकरण में ‘लव’ यानी कुर्मी को ज़बरदस्त फ़ायदा मिला तो ‘कुश’ यानी कोइरी में नाराज़गी दिखी. कुशवाहा समाज के लोगों के बीच में आक्रोश इस बात को लेकर है कि 2.5 फ़ीसदी संख्या वाले, पाँच फ़ीसदी संख्या पर कैसे राज कर रहे हैं. 2005 से लेकर अब तक के सफ़र में एकतरफ़ा कुर्मी समाज ने राज किया तो कुशवाहा समाज पिछलग्गू बनकर रह गया है. इसीलिए 2020 में कोइरी समाज के वोटों में सेंध लगी तो 2024 के चुनाव में अच्छा-ख़ासा नुकसान हुआ.
कुर्मी-कोइरी का टूटता समीकरण
बिहार में सत्ता की कमान नीतीश कुमार के हाथों में होने के चलते कुर्मी उनके साथ जुड़ा रहा, लेकिन कोइरी वोटर दूर हुआ. 2020 के चुनाव में 16 कुशवाहा विधायक जीते थे, जिसमें भाजपा के 3 विधायक, जेडीयू के 4 विधायक थे, जबकि आरजेडी के 4 विधायक और वामपंथी दलों से पांच विधायक जीतकर आए. इस तरह से पहली बार था कि एनडीए से ज्यादा कुशवाहा विधायक महागठबंधन से जीते थे.
वहीं, 2024 लोकसभा चुनाव में कुशवाहा वोट बैंक को साधने के लिए महागठबंधन की तरफ़ से 7 उम्मीदवार को मैदान में उतारा गया. उसके जवाब में एनडीए की तरफ़ से केवल 4 उम्मीदवार दिए गए. जेडीयू के 3 और एक उपेंद्र कुशवाहा ख़ुद चुनाव लड़े, लेकिन सबसे चौंकाने वाला रिज़ल्ट आरजेडी से अभय कुशवाहा ने दिया. उन्होंने औरंगाबाद से जीत हासिल की.
औरंगाबाद से सांसद बनने वाले अभय कुशवाहा पहले जेडीयू में थे, लेकिन लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ही वह आरजेडी में शामिल हुए थे. उनको लालू ने टिकट दिया और वह जीत भी गए. लालू ने लोकसभा में उनको आरजेडी संसदीय दल का नेता बना दिया है. एक तरह से उन्होंने कुशवाहा वोट बैंक को साधने के लिए बड़ा खेल खेला है. इसके अलावा, कई कोइरी समाज के नेताओं को आरजेडी ने अपने साथ जोड़ा है और उसे आगे बढ़ाने का काम किया.
नीतीश कुमार, जिनका कोर वोट बैंक कुशवाहा और कुर्मी रहा है, उनकी चिंता बढ़ा दी है. लालू यादव के गेम प्लान को काउंटर करने के लिए नीतीश कुमार ने शाहाबाद के बड़े कुशवाहा नेता भगवान सिंह कुशवाहा को विधान परिषद की ख़ाली हुई एक सीट पर चुनाव में उतारा है. वहीं, भाजपा ने उपेंद्र कुशवाहा को चुनाव हारने के बाद भी राज्यसभा भेजा तो सम्राट चौधरी को उपमुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी सौंप रखी है. इसके बाद भी भाजपा कुर्मी-कोइरी वोटों को लेकर गंभीर है.
बीजेपी की तिकड़ी क्या गुल खिलाएगी?
जेडीयू के सामने कोइरी-कुर्मी वोटों को साधने की चुनौती है, जिसकी कमान नीतीश कुमार ख़ुद संभाल रहे हैं. इसके बाद भी भाजपा ने धर्मेंद्र प्रधान, केशव प्रसाद मौर्य और सी आर पाटिल की तिकड़ी उतारी, क्योंकि आरजेडी का पूरा फ़ोकस कुशवाहा वोटों पर है. भाजपा इस बात को समझते हुए ख़ुद मोर्चा सँभाल लिया है और अपने दिग्गज नेताओं की फ़ौज उतारी. धर्मेंद्र प्रधान ओबीसी समाज से आते हैं. यह वही वर्ग है, जिसे नीतीश कुमार का कोर वोट बैंक माना जाता है. भाजपा को उम्मीद है कि प्रधान की सामाजिक पृष्ठभूमि और रणनीतिक कौशल से एनडीए को सीधा फ़ायदा मिलेगा.
केशव प्रसाद मौर्य उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हैं और भाजपा के एक प्रमुख ओबीसी चेहरा हैं. 2017 के यूपी चुनाव में भाजपा ने केशव मौर्य को आगे करके शाक्य, सैनी, कुशवाहा और मौर्य को अपने सियासी पाले में करने में सफ़ल रही थी. अब इसी दांव को बिहार के रण में आज़माने के लिए उन्हें उतारा है. केशव की क़ाबिलियत संगठन को ज़मीन से जोड़कर धरातल पर मज़बूत करने की रही है. इसी तरह सी आर पाटिल मूल रूप से महाराष्ट्र के जलगांव से हैं, जो मराठा समुदाय से हैं, लेकिन कुर्मी समाज से जोड़कर देखा जाता है.
बिहार की राजनीति जातीय समीकरण के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. ओबीसी में कुशवाहा, कोइरी, कुर्मी, यादव, मल्लाह जैसी जातियां चुनावी समीकरण को प्रभावित करती हैं. धर्मेंद्र प्रधान, केशव प्रसाद मौर्य और सीआर पाटिल की यह तिकड़ी सिर्फ़ नामों का संयोग नहीं, बल्कि भाजपा की बिहार चुनाव में नई रणनीति है. एक ओर उनमें जातीय संतुलन, दूसरी ओर संगठन नियंत्रण और केंद्रीय तालमेल का मिश्रण है. भाजपा अपनी इस तिकड़ी के ज़रिए लव-कुश समीकरणों को संतुलित करने की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है.
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