0

बिहार में हर बार बसपा की फसल काट ले जाती है ‘सरकार’, आकाश आनंद कैसे बचाएंगे यात्रा से सियासी आधार? – akash anand bsp bihar yatra start mayawati dalit politics bihar election campaign start ntcpkb


उत्तर प्रदेश की पूर्व सीएम मायावती के भतीजे आकाश आनंद ने बिहार की सियासी बसपा की कमान संभाल ली है. बिहार चुनाव का ऐलान होने से पहले आकाश आनंद ने बुधवार को कैमूर जिले से बसपा की ‘सर्वजन हिताय जागरूक यात्रा’ शुरू की, जो 11 दिनों में 13 जिलों से होकर गुज़रेगी. ‘घर वापसी’ के बाद क्या आकाश आनंद बिहार के रण में बसपा के लिए सियासी माहौल बना पाएंगे?

बसपा प्रमुख मायावती ने बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है. इस बार बसपा सभी 243 सीटों पर अपनी चुनावी किस्मत आज़माएगी. मायावती ने पार्टी के राष्ट्रीय कोऑर्डिनेटर रामजी गौतम और केंद्रीय प्रदेश प्रभारी अनिल कुमार को बिहार चुनाव की कमान सौंप रखी है.

बिहार विधानसभा चुनाव की सियासी तपिश के बीच अब बसपा के पक्ष में सियासी माहौल बनाने के लिए आकाश आनंद उतरे हैं. आकाश आनंद बसपा की ‘सर्वजन हिताय जागरूक यात्रा’ को रवाना करके बिहार की चुनावी जंग फतह करने की नींव रखेंगे, लेकिन सवाल यही है कि क्या वे बसपा के लिए बिहार की ज़मीन को सियासी तौर पर उपजाऊ बना पाएंगे?

बिहार के 13 जिलों में बसपा की यात्रा

बसपा की ‘सर्वजन हिताय जागरूक यात्रा’ शुरू हो गई है. 11 दिनों में यह यात्रा 13 जिलों से होकर गुज़रेगी. कैमूर जिले से शुरू हुई यात्रा वैशाली जिले में समाप्त होगी. यह यात्रा कैमूर से बक्सर, रोहतास, अरवल, जहानाबाद, छपरा, सीवान, गोपालगंज, बेतिया, मोतिहारी और मुजफ्फरपुर जैसे जिलों से गुज़रेगी.

बसपा की यात्रा बिहार के जिन इलाकों से गुज़रेगी, वे दलित बहुल माने जाते हैं और ज्यादातर यूपी की सीमा से सटे हुए हैं. बसपा अपना खाता इन्हीं इलाकों में खोलती रही है. बसपा इस यात्रा के ज़रिए दलित समुदाय को अपने पक्ष में एकजुट रखना चाहती है. इसीलिए पार्टी के द्वारा जारी बयान में भी कहा गया है कि डॉ. आंबेडकर के सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण और उनके संवैधानिक मूल्यों को राज्य के कोने-कोने तक पहुंचाना है.

बसपा की फसल काट ले जाती है सरकार

बसपा भले ही यूपी की तरह बिहार में अपना सियासी आधार मजबूत न कर सकी हो, लेकिन बिहार में उसका खाता खुलता रहा है. हालांकि, बसपा के साथ सूबे में गज़ब की ट्रेजेडी रही है. विधानसभा चुनाव में बसपा सियासी ज़मीन तैयार कर फसल उगाती रही है, लेकिन हर बार उसे सरकार काट ले जाती है. यह सिलसिला 1995 से शुरू है, जब पहली बार बसपा विधानसभा चुनाव लड़ी थी. उसके दो विधायक हुए और दोनों सत्ताधारी आरजेडी में शामिल हो गए.

1995 में चैनपुर से महाबली सिंह और मोहनिया से सुरेश पासी बसपा टिकट पर विधायक बने, लेकिन दोनों ही लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाली आरजेडी के साथ खड़े रहे और बाद में शामिल हो गए. 2000 के विधानसभा चुनाव में बसपा के पाँच विधायक चुने गए: राजेश सिंह, सुरेश पासी, छेदी लाल राम, महाबली सिंह और जाकिर हुसैन. ये सभी साथ छोड़ गए.

फरवरी 2005 में बसपा के टिकट पर दो विधायक बने, लेकिन किसी को बहुमत न मिलने पर सरकार नहीं बनी. इसके बाद अक्टूबर 2005 में दोबारा चुनाव हुआ तो बसपा के टिकट पर चार विधायक बने, जो बाद में आरजेडी और जेडीयू में शामिल हो गए.

2010 और 2015 के विधानसभा चुनावों में बसपा का खाता तक नहीं खुला. बसपा का वोट पांच फीसदी से घटकर 2 फीसदी पर आ गया. 2020 में बसपा ने 80 विधानसभा क्षेत्रों से अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिसमें केवल चैनपुर से जमा खान चुनाव जीते. चुनाव के बाद जमा खान ने जेडीयू का दामन थाम लिया और नीतीश सरकार में मंत्री बन गए.

बिहार के सियासी रण में उतरे आकाश

आकाश आनंद ने बसपा के ‘मिशन बिहार’ का आगाज़ कर दिया है. उन्होंने बसपा की ‘सर्वजन यात्रा’ को हरी झंडी दिखाई. दो महीने में आकाश आनंद का यह दूसरा बिहार दौरा है. आकाश पहले पटना में छत्रपति शाहूजी महाराज की जयंती पर शामिल हुए थे और अब बसपा की यात्रा का आगाज़ करने पहुँचे हैं. इस बार बसपा अकेले चुनावी मैदान में उतरी है, जिसके चलते सियासी चुनौतियाँ भी बहुत ज्यादा हैं.

बिहार में बसपा की राजनीतिक राह इस बार काफी मुश्किलों भरी नज़र आ रही है. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि बसपा का सियासी आधार लगातार कमज़ोर हुआ है और बिहार की चुनावी लड़ाई दो गठबंधनों के बीच सिमटती दिख रही है. ऐसे में बसपा का अकेले चुनाव में उतरकर जीतना लोहे के चने चबाने जैसा है.

बिहार में दलित सियासत पर बसपा की नज़र

बसपा का सियासी आधार दलित समुदाय के बीच है. बिहार में दलित समुदाय की आबादी करीब 18 फीसदी है और बसपा का सियासी जनाधार इन्हीं दलित वोटों पर निर्भर है. 2005 में नीतीश कुमार की सरकार ने 22 में से 21 दलित जातियों को महादलित घोषित कर दिया था और 2018 में पासवान भी महादलित वर्ग में शामिल हो गए. इस हिसाब से बिहार में अब दलित के बदले महादलित जातियाँ ही रह गई हैं. प्रदेश के 18 फीसदी दलित समुदाय में सबसे अधिक पासवान, मुसहर और रविदास समाज की जनसंख्या है.

मौजूदा समय में साढ़े पाँच फीसदी से अधिक मुसहर, चार फीसदी रविदास और साढ़े तीन फीसदी से अधिक पासवान जाति के लोग हैं. इनके अलावा धोबी, पासी, गोड़ आदि जातियों की भी अच्छी-खासी भागीदारी है. बिहार में बसपा का आधार सिर्फ रविदास समाज के बीच रहा है, जो कांग्रेस का कोर वोटबैंक माना जाता है. कांग्रेस इसी वोटबैंक को साधने के लिए अपना प्रदेश अध्यक्ष बना चुकी है और राहुल गांधी लगातार दलित समाज को साधने में जुटे हुए हैं.

यूपी की तरह बिहार में बसपा नहीं रही सफल

उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने जिस तरह से दलित समुदाय में राजनीतिक चेतना के लिए संघर्ष किया, वैसा बसपा ने कोई आंदोलन बिहार में नहीं किया है. इसीलिए बसपा बिहार में दलित राजनीति कभी स्थापित नहीं हो सकी है. माना जाता है कि बसपा सिर्फ बिहार में चुनाव लड़ने का काम करती है, यहाँ उसका न तो कोई ज़मीनी संगठन है और न ही कोई राजनीतिक प्लान. चुनाव के दौरान मायावती को बिहार की याद आती है और पाँच साल तक कोई चिंता नहीं सताती है.

बिहार में दलित राजनीति दूसरे राज्यों से काफी अलग है. बिहार में दलित समुदाय हर चुनाव में अपना मसीहा तलाशता है. कांग्रेस के बाबू जगजीवन राम बिहार में दलितों के बड़े नेता रहे हैं. उनके बाद उनकी बेटी मीरा कुमार ने उनकी विरासत संभाली, लेकिन वो उतनी बड़े जनाधार वाली नेता नहीं बन सकीं. रामविलास पासवान महज़ अपनी बिरादरी के नेता बनकर रह गए. इसीलिए हर चुनाव में दलित समुदाय का वोटिंग पैटर्न बदलता रहा है.

यूपी से लगे हुए बिहार के कुछ इलाकों में बसपा का अपना जनाधार है, लेकिन पूरे बिहार में न तो पार्टी खड़ी हो सकी और न ही कभी सक्रिय भूमिका में दिखी. इसके पीछे एक वजह यह भी रही कि कांशीराम ने जितना फोकस यूपी पर किया, उतना बिहार में नहीं कर सके. उन्हें बिहार में मायावती जैसा कोई नेता नहीं मिला, जो उनके मिशन को लेकर राज्य में आगे बढ़ सके. बिहार में दलित नेताओं का भी दायरा सीमित रहा है. अब बिहार के रण में आकाश आनंद उतरे हैं.

क्या बिहार में बसपा भरेगी सियासी उड़ान?

बिहार में इस बार सभी दलों की नज़र दलित समुदाय के वोटबैंक पर है. बीजेपी बिहार में चिराग पासवान के ज़रिए दुसाध और जीतन राम मांझी के ज़रिए मुसहर समुदाय को अपने सियासी पाले में रखने का दांव चल चुकी है. सीएम नीतीश कुमार दूसरे दलित समाज को भी साधने की रणनीति पर काम कर रहे हैं.

आरजेडी के नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ गठबंधन में पशुपति पारस के ज़रिए दुसाध समाज को पाले में करने की रणनीति है तो कांग्रेस ने राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर रविदास समाज को सियासी संदेश दिया है. ऐसे में आकाश आनंद के सामने बिहार के दलित समुदाय को साधने की चुनौती खड़ी हो गई है. आकाश आनंद बिहार चुनाव से पहले सियासी यात्रा निकालकर माहौल बनाने की कवायद में जुट गए हैं, लेकिन क्या वे पार्टी के लिए सियासी ज़मीन को उपजाऊ बना सकेंगे?

—- समाप्त —-